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Wednesday, April 24, 2024

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क्या है गैरसैण में

उत्तराखंड राज्य के अस्तित्व में आने के बाद अस्थायी राजधानी देहरादून व इसके आसपास फली-फूली राज्य विरोधी ताकतें तथा कुछ धंधेबाज लोग अक्सर उठाते हैं यह सवाल।
सुविधाओं के आभाव में पलायन को झेलते पहाड़ के लिए उम्मीद की एक किरण है गैरसैण। राज्य निर्माण के बाद सत्ता पर काबिज राजनेताओं के खिलाफ आक्रोश को प्रदर्शित करने वाली अनुभूति का नाम है गैरसैण। गैरसैण को उत्तराखंड की राजधानी बनाये जाने के संदर्भ में एकजुट होते दिख रहे तमाम आंदोलनकारी संगठनों व संघर्षशील आंदोलनकारी ताकतों से अक्सर यह सवाल पूछा जाता है कि सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों में स्थिति गैरसैण में आखिर ऐसा क्या है जो कोई भी सरकारी तंत्र देहरादून के व्यवस्थित राजपाठ को छोड़कर एक छोटे से क्षेत्रफल में बसाये गये विधानसभा भवन व कुछ अन्य अवस्थापना सुविधाओं को राजधानी का नाम देकर पूरे लावा-लश्कर के साथ वहां प्रस्थान करे या फिर सत्ता पर काबिज विचारधारा इस बात से सहमति व्यक्त करे कि वह आंदोलनकारी ताकतों व गैरसैण की मांग करने वाले संगठनों से सहमत है और आगामी चार वर्षों के कार्यकाल में वह गैरसैण में तमाम सुविधागत् व्यवस्थाएं जुटाने के लिए प्रतिबद्ध है। यह सच है कि गैरसैण उत्तराखंड के दूरस्थ व अविकसित कस्बों में से एक है और राज्य के नक्शे में उसे किसी जिले अथवा विकसित शहर के रूप में भी नहीं पहचाना जा सकता लेकिन गैरसैण उत्तराखंड राज्य आंदोलन के प्रति समर्पित जनभावनाओं का केन्द्र है और इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि इसका अविकसित एवं सुविधाओं के आभाव से जूझता स्वरूप इस पहाड़ी राज्य के उन तमाम जिलों व दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करता है जो राज्य गठन के इन सत्रह वर्षों बाद भी विकास एवं सामान्य जनजीवन के लिए आवश्यक मूलभूत आवश्यकताओं से कोसों दूर है। शायद यही वजह है कि आंदोलनकारी ताकतों को गैरसैण हमेशा पसंद रहा है और राज्य में गैरसैण को राजधानी बनाये जाने के संदर्भ में अक्सर आवाजें भी उठती रहती हैं लेकिन इधर पिछले एक-दो वर्षों में मतदाताओं को छलने के लिए गैरसैण में आयोजित किए जाने वाले एक या दो दिवसीय विधानसभा सत्र के नाम पर नेताओं द्वारा मनाये जा रहे पिकनिक तथा आंदोलनकारी ताकतों को मुद्दे से भटकाने के लिए छोड़ा गया ग्रीष्मकालीन राजधानी का शगूफा वाकई में चिंतित करने वाला है और गैरसैण में आहूत हालिया विधानसभा सत्र के बाद धीरे-धीरे कर एकजुट हो रही आंदोलनकारी ताकतें व जूलूस या आमरण अनशन के रूप में परिलक्षित होता दिख रहा जनाक्रोश इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि जनता गैरसैण को लेकर की जा रही सरकारी बाजीगिरी से खुश नहीं है। यह माना जा सकता है कि आर्थिक रूप से कमजोर उत्तराखंड के लिए नये सिरे से राजधानी के मुद्दे पर विचार करना एक कठिन कार्य है और अस्थायी राजधानी देहरादून में तमाम सुविधाएं व व्यवस्थाएं जुटाने के बाद एकाएक ही सब छोड़कर गैरसैण चल देना असंगत भी है लेकिन यह ध्यान देने योग्य विषय है कि गैरसैण का यह शगूफा खुद सरकार द्वारा छोड़ा गया है जिसे पूर्ववर्ती सरकार द्वारा नवनिर्मित विधानसभा भवन के माध्यम से तथा वर्तमान सरकार द्वारा गैरसैण में सत्र आहूत कर हवा दी गयी है। अगर सरकारी तंत्र की नीयत साफ होती तो वह गैरसैण के इस हालिया सत्र में राजधानी के संदर्भ में स्पष्ट वक्तव्य व ठोस आधार के साथ जनता के सामने रखता और अस्थायी राजधानी देहरादून को स्थायी घोषित किए जाने के परिपेक्ष्य में या फिर गैरसैण को स्थायी अथवा ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किए जाने के संदर्भ में एक समयबद्ध कार्यक्रम घोषित किया जाता लेकिन सरकार इन तमाम झंझटों से बचते हुए दो दिन के भीतर अपना विधायी कार्य निपटाकर भागने की जल्दबाजी में दिखाई दी तथा गैरसैण को स्थायी राजधानी घोषित करने की मांग को लेकर कड़ाके की ठंड में धरना-प्रदर्शन व आंदोलन कर रहे संगठनों से बात जहमत उठाना भी सरकार ने जरूरी नहीं समझा। यह ठीक है कि इस वक्त उत्तराखंड के सदन में एक पूर्ण बहुमत की सरकार काबिज है और स्थायी राजधानी गैरसैण या फिर पलायन आदि से जुड़े मुद्दों पर मुख्य विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस का दामन भी बहुत उजला नहीं है लेकिन इसका तात्पर्य यह तो नहीं है कि राजसत्ता पर विराजमान लोकतांत्रिक सरकारों अथवा विपक्ष को व्यापक जनहित से जुड़े मुद्दों पर जनता की आवाज को दबाने का अधिकार प्राप्त हो गया है और अगर पहाड़ों की वर्तमान दशा व हालातों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि व्यापक जनमत के साथ जनता का नेतृत्व करने का दावा करने वाले हमारे अधिकांश जनप्रतिनिधि अथवा विभिन्न राजनैतिक दलों की नुमाइंदगी करने वाले तथाकथित जननेता व्यापक जनहित से जुड़े मुद्दों पर अक्सर मौन ही नजर आते हैं जिसके चलते स्थायी राजधानी गैरसैण जैसे तमाम ज्वलंत विषयों को आंदोलन के माध्यम से सरकार के सामने रखने के अलावा और कोई चारा भी नहीं दिखाई देता। हालांकि यह कहना कठिन है कि स्थायी राजधानी के रूप में गैरसैण के चयन के बाद पहाड़ की पहाड़ सी समस्याओं का एक ही झटके में समाधान हो जाएगा और एक पहाड़ी राज्य की सरकार के पहाड़ पर स्थित राजधानी में बैठने मात्र से ही पलायन, उजड़ती खेती या फिर अध्यापकविहीन स्कूल व चिकित्साविहीन अस्पतालों से जूझ रहे पहाड़ी जनमानस की सभी तकलीफों का आसान निदान हो जाएगा लेकिन इतना तय है कि अगर इस राज्य की राजधानी गैरसैण जैसे किसी भी पर्वतीय भूभाग में होती तो सत्ता के शीर्ष को संभालने वाले नीति-निर्धारकों व नौकरशाही के एक बड़े हिस्से को स्थानीय जनता के दर्द का नजदीकी से अहसास होता लेकिन हम देख रहे हैं कि राज्य बनने के बाद इन सत्रह वर्षों में पहाड़ से सिर्फ जनता ने ही पलायन नहीं किया है बल्कि हमारे तमाम नेता व जनप्रतिनिधि भी अपने-अपने संसाधनों व पदवी के हिसाब से मैदानी इलाकों में बसने की तैयारी पूरी कर चुके हैं। लिहाजा उत्तराखंड राज्य आंदोलन व राज्य निर्माण का मूल उद्देश्य स्वतः ही समाप्ति की ओर है और इस नवगठित राज्य के ऊर्जा प्रदेश होने या फिर ऐसे ही तमाम अन्य दावों के बावजूद हम यह आसानी से महसूस कर सकते हैं कि राज्य गठन के बाद पहाड़ पर तेजी से पनपा माफिया-ठेकेदार-राजनेता और नौकरशाही का गठजोड़ पहाड़ के संसाधनों व सरकार द्वारा किसी भी मद में पहाड़ के लिए जारी किए गए बजट को तेजी से चट करता जा रहा है जबकि सरकार के लिए राजस्व वसूली का एक बड़ा जरिया बन चुकी शराब यहां की युवा पीढ़ी को तेजी के साथ आर्थिक, मानसिक एवं शारीरिक रूप से खोखला करती जा रही है और स्थानीय स्तर पर घटते जा रहे रोजगार युवा पीढ़ी की खिन्नता व निराशा का एक बड़ा कारण है। यह ठीक है कि चुनाव दर चुनाव प्रत्याशियों द्वारा शराब की मद में बढ़ाया जा रहा खर्च हाल-फिलहाल स्थितियों को नियंत्रण में रखे हुए है और चुनावी नतीजों या अन्य आंकड़ों के हिसाब से राजनैतिक दलों व उनके बड़े आकाओं को अपनी चुनावी रणनीति या जनाधार को लेकर एक खोखला भ्रम भी बना हुआ है लेकिन हालात इतने अच्छे नहीं हैं कि सरकार जनता के बीच से उठ रही आंदोलन की आवाज को हलके में लिया जाय या फिर सत्ता के शीर्ष पर काबिज नेताओं द्वारा यह दर्शाया जाय कि बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज होने के बाद उनके लिए हड़तालों, आंदोलनों या फिर आमरण अनशन का कोई महत्व नहीं है। वर्तमान में हो कुछ ऐसा ही रहा है तथा सत्ता के मद में चूर नेताओं व जनप्रतिनिधियों को जनसाधारण की बात करने वाली या फिर आम आदमी की समस्याओं की ओर ध्यान इंगित कराने वाली जनवादी ताकतों से कोई लेना-देना ही नहीं लगता। नतीजतन लोगों की नाराजी बढ़ रही है और वह अपनी तमाम छोटी-बड़ी समस्याओं का समाधान गैरसैण को राजधानी बनाये जाने या फिर इससे ही मिलते-जुलते अन्य जनवादी आंदोलनों में ढूंढ रहे हैं।

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