पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता की दावेदारी पर भाजपा में तेज हुआ मथंन का दौर।
उत्तराखण्ड व उत्तरप्रदेश में पूर्ण बहुमत हासिल करने के बाद भाजपा के शीर्ष नेताओं के बीच मुख्यमंत्री की तलाश को लेकर कवायद शुरू हो गयी है और मुख्यमंत्री पद के दावेदारों ने अपने-अपने स्तर पर आलाकमान तक अपनी बात पहुॅचाने की कोंशिश शुरू कर दी है। हाॅलाकि मुख्यमंत्री का चुनाव विधायको के बीच से किये जाने की परम्परा रही है और सत्तापक्ष के विधायको द्वारा एक बैठक के माध्यम से अपना नेता चुना जाता रहा है लेकिन इधर पिछले कुछ अर्से से प्रदेशो की राजनीति पर हावी राष्ट्रीय राजनैतिक दल अपनी इच्छाओं को प्रादेशिक नेतृत्व व सरकारों पर थोपते हुऐ अपनी सुविधा के अनुसार नेता सदन या नेता विरोधी दल का चुनाव करते है और अधिकतम् मामलों में यह देखा जाता है कि सत्ता पक्ष ऐसे व्यक्ति या नेता को सरकार की कमान दे देता है जो कि उस सदन का सदस्य ही नहीं होता। इन हालातों में स्थानीय जनता को न चाहते हुऐ भी उपचुनाव का सामना करना पड़ता है और विकास कार्य बाधित होते है लेकिन एक बार सरकार बनाने के लायक जनमत हासिल कर लेने के बाद राजनैतिक दल देश की जनता की फिक्र कम ही करते है और अपने-अपने समीकरणों के हिसाब से राजकाज चलाने की केाशिशें की जाती है। उत्तराखण्ड ने अपने अस्तित्व में आने के बाद कुछ ऐसे ही हालातों का सामना किया है और शायद यहीं वजह है कि भाजपा के शीर्ष नेताओं ने अपने सम्बोधनो व घोषणा पत्र के माध्यम से प्रदेश की जनता को यह आश्वासन देने पर मजबूर होना पड़ा था कि सरकार बनने की स्थिति में वह चुने गये विधायको के बीच से ही मुख्यमंत्री का चुनाव करेंगे। अगर ऐसा होता है तो उत्तराखण्ड में सत्ता पर कब्जेदारी का हक साबित कर चुकी भाजपा के तीन दिग्गज नेता भगत सिह कोश्यारी, रमेश पोखरियाल निशंक और भुवन चन्द्र खंडूरी शुरूवाती दौर में ही मुख्यमंत्री पद की दौड़ से बाहर हो जाते है जबकि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के साथ ही साथ पिछली सरकार में नेता विरोधी दल की कुर्सी सम्भालने वाले अजय भट्ट विधानसभा चुनावों में मिली शिकस्त के चलते पहले ही मैदान से बाहर है। इन हालातों में दिग्गज नेता सतपाल महाराज को मुख्यमंत्री पद का सशक्त दावेदार माना जा सकता है और उनका अपने राजनैतिक कद से हटते हुऐ पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ना इस दावे को पुख्ता भी करता है लेकिन उनकी यहीं विशेषता उनके विरूद्ध भी जाती है क्योंकि वर्तमान सदन में भाजपा की ओर से कई अनुभवी विधायक व पूर्व मंत्री चुनाव जीतकर आये है और उन्हे संसदीय नियम-कानूनों व काम करने की बेहतर जानकारी भी है। उपरोक्त के अलावा सतपाल महाराज का संघ पृष्ठभूमि से जुड़ा न होना भी मुख्यमंत्री पद पर उनकी दावेदारी को कम करता है और भाजपा के कई वरीष्ठ नेताओ से नजदीकियों के बावजूद भी यह माना जा रहा है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व अपनी इस सरकार का काॅग्रेसीकरण नहीं करेगी क्योंकि सतपाल महाराज के अलावा हरक सिह रावत व यशपाल आर्या इस खेमे से मन्त्रीपद के सशक्त दावेदार होंगे और बगावत की पटकथा के प्रमुख सूत्राधार माने जाने वाले विजय बहुगुणा भी इस पूरी उठापटक की एवज में कुछ इनाम अवश्य चाहेंगे। इन हालातों में सतपाल महाराज को अगली सरकार की कमान देना भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को शायद मंजूर नही होगा और चुनावी नतीजों के रूप में भाजपा को मिले थोक के भाव विधायको की संख्या को देखते हुऐ भाजपा के भीतर मौजूद इस काॅग्रेसी गुट द्वारा बगावत के नाम पर सत्तापक्ष को ब्लेकमेल करने की कोई सम्भावना भी नही है। इसलिऐं इस दावे में दम दिखाई देता है कि भाजपा को मिली इस भारी जीत की पटकथा लिखने के बावजूद भी सतपाल महाराज को बहुत कुछ हासिल नही होगा क्योंकि मुख्यमंत्री न बनाये जाने की स्थिति में वह कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ लेंगे, ऐसा सम्भव नही जान पड़ता। हाॅ यह जरूर हो सकता है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व उन्हे देर-सवेर राज्यसभा भेजकर उनकी पत्नी अमृता रावत को मन्त्रीपद से नवाजे। हालातों के मद्देनजर मुख्यमंत्री पद के मुख्य दावेदार के रूप में प्रकाश पन्त व त्रिवेन्द्र रावत का नाम आगे आता है क्योंकि अनुभवों व भाजपा के प्रति समर्पण को देखते हुऐ मदन कौशिक व हरबंश कपूर भी मुख्यमंत्री पद के दावेदार हो सकते है लेकिन मैदानी मूल के माने जाने वाले कपूर या कौशिक को एक पहाड़ी राज्य का मुख्यमंत्री बनाने का जोखिम भाजपा का शीर्ष नेतृत्व लेगा, ऐसा नही लगता। अगर त्रिवेन्द्र सिह रावत की बात करें तो संघ के बड़े नेताओ तक सीधी पहुॅच तथा चुनावी हार के बावजूद उन्हें अमित शाह की टीम में मिली जगह यह साबित करती है कि पूर्व में प्रदेश भाजपा सरकार में मंत्री रह चुके त्रिवेन्द्र मुख्यमंत्री पद के पुख्ता दावेदार हो सकते है लेकिन पूर्व में उनपर लगे ढेचाॅ बीच घोटाले के आरोंप तथा एक वर्ग विशेष के मतदाताओं के साथ उनका जुड़ाव उन्हें मुख्यमंत्री पद की इस दौड़ के अयोग्य बनाता है और पूर्व में विधानसभा अध्यक्ष व मन्त्री रह चुके प्रकाश पन्त स्वतः ही इस दौड़ में आगे आ जाते है। हमे ध्यान आता है कि पूर्व में भी जब भुवन चन्द्र खंडूरी को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटा नया नेतृत्व सामने लाने की बात चली थी तो भाजपा हाईकमान व संघ के शीर्ष नेतृत्व ने प्रकाश पन्त की योग्यताओं पर भरोसा जताया था। यह ठीक है कि उस समय खंडूरी जी की संस्तुति पर रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ का नाम आगे आने से प्रकाश पन्त इस दौड़ में पिछड़ गये थे लेकिन इस तथ्य को नकारा नही जा सकता कि भाजपा हाईकमान ने उस वक्त भी प्रकाश पन्त की योग्यता व नेतृत्व क्षमता को पहचाना था और इस बार फिर हालात यह इशारा कर रहे है कि अगर परिस्थितियों में कोई बड़ा बदलाव नही हुआ तो प्रकाश पन्त को यह मौका मिल सकता है। अब यह तो वक्त ही बतायेगा कि भाजपा हाईकमान मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर क्या निर्णय लेता है और जल्द ही अस्तित्व में आने वाली उत्तराखण्ड की पूर्ण बहुमत वाली सरकार का नेतृत्व करने का मौका किस नेता को मिलता है लेकिन इतना तय है कि अगर मुख्यमंत्री के चयन को लेकर भाजपा हाईकमान से कोई चूक होती है तो इस प्रदेश की जनता एक जीती हुई बाजी हार जायेगी।