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Thursday, April 25, 2024

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कभी रेल में तो कभी जेल में

फिल्मी अदाकारो का तो काम ही है चर्चाओं में बने रहने के लिऐ कुछ न कुछ अलग करने की कोशिश करना लेकिन सरकारी तंत्र को अपनी खामिया छिपाने की कोशिश करने की जगह व्यवस्था मेें सुधार के उपाय करने चाहिऐ।

अपनी फिल्म के प्रमोशन को निकले अभिनेता शाहरूख खान से मुलाकात को लेकर अति उत्साहित उनके प्रसंशकों की भीड़ में एक व्यक्ति का दबकर मर जाना, वास्तव में एक दर्दनाक घटना है और इस घटनाक्रम के बाद यह सिद्ध होता है कि भारतीय रेल जैसे सार्वजनिक यातायात के साधन अपने यात्रियों व अपने स्टेशनों पर आने वाले मुसाफिरों की सुरक्षा को लेकर गंभीर नही है। हांलाकि इस संदर्भ में सरकारी पक्ष की वकालत करने वाली सोच का यह मानना है कि अपने व्यक्तिगत् व्यवसायिक हित के लिऐ शाहरूख द्वारा भारतीय रेल के इस्तेमाल के कारण ही यह दुर्घटना घटी और इसके लिऐ शाहरूख खान की निन्दा करते हुऐ इस प्रकार की व्यवसायिक गतिविधियों पर रोक लगनी चाहिऐं लेकिन अगर कानून की दृष्टि से देखा जाय तो भारतीय नागरिक होने के कारण शाहरूख को देश के किसी भी हिस्से में जाने या फिर सार्वजनिक यातायात के साधनो का उपयोग करने के लिऐ किसी भी तरह से अलग अनुमति लेने या प्रशासन को सूचना देने की जरूरत नही है बल्कि अगर सही मायने में देखा जाय तो सार्वजनिक यातायात के संसाधनो को बढ़ावा देने व इसमें दी जाने वाली सुविधाओं की गुणवत्ता में सुधार के लिऐ तमाम नामी-गिरामी हस्तियों के अलावा सरकारी व्यवस्थाओं के लिऐ जिम्मेदार हमारे नीति निर्माताओं व नौकरशाहों ने भी बिना किसी सरकारी तामझाम के इस प्रकार की यात्राऐं करनी चाहिऐं। शाहरूख ने खुद इस तथ्य को स्वीकार किया कि अपने फिल्मी जीवन में यह उनकी पहली रेल यात्रा है वरना वह अपने आवागमन के लिऐ हवाई मार्ग अथवा निजी वाहनों से ही यात्रा करना पसंद करते है। इन हालातों में यह एक बड़ा सवाल हो सकता है कि अगर शाहरूख जैसी फिल्मी दुनिया की तमाम शख्सियतें व खेल या अन्य विधाओ से जुड़े अन्य लोग भी अपने-अपने संसाधनों का इस्तेमाल करने की जगह रेल का इस्तेमाल आवागमन के लिये शुरू कर दे तो क्या पूरे देश में अफरातफरी का एक माहौल नही बन जायेगा और इस अफरातफरी को रोकने के लिऐ सरकार के पास व्यवस्थाऐं क्या है? गौरेतलब है कि यूपीए को चुनावी मात देकर एनडीए की मोदी के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार ने सत्ता पर काबिज होने के बाद रेलवे प्लेटफार्म टिकट का मूल्य दो रूपये से बढ़ाकर दस रूपये कर दिया है लेकिन मूलभूत व्यवस्थाओं के क्रम में देखा जाय तो इन पिछले तीन वर्षों में रेलवे द्वारा प्लेटफाॅर्म स्तर पर यात्रियों को दी जाने वाली सुविधाओं में कोई सुधार नही दिखता। ऐसे वक्त में जब सरकार अपना आम बजट लोकसभा के माध्यम से जनता के बीच प्रस्तुत करने जा रही है और रेल बजट को भी इसी में शामिल कर दिया गया है, तो सरकार को चाहिए था कि वह इस हादसे से सबक लेती और बजटीय प्रावधानो के माध्यम से उन तमाम खामियों को दूर करने का प्रयास किया जाता जो सिर्फ रेल यातायात ही नही बल्कि सार्वजनिक यातायात के लगभग हर संसाधन के इस्तेमाल में साफ दिखाई देती है लेकिन अफसोसजनक है कि सरकारी तत्र अपनी असफलताओं से सीख लेने की जगह इस दुर्घटना के लिऐ शाहरूख खान को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश कर रहा है और सरकार के मंत्री सार्वजनिक मंचो पर अपनी कमियां छुपाने के लिऐ उनपर तोहमत लगाते नजर आ रहे है। इतना ही नही सरकार अपनी जिम्मेदारियां से बचने के लिऐ पिछले दिनों हुई तमाम रेल दुर्घटनाओं को आंतकी वारदात से जो़ड़ने की कोशिश करती मालुम हो रही है और रेल विभाग की व्यवस्थाओं को पुख्ता बताते हुये जनसामान्य के बीच यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है जो कि कुछ भी हुआ वह आकस्मिक था और इसके लिऐ रेल विभाग की पुख्ता व्यवस्थाओं में कोई कमी नही निकाली जा सकती लेकिन अगर आम आदमी की नजर से देखे तो यह स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि रेल हादसों के दौरान जान गंवाने वाले मृतकों के परिवारो को इस बात से कोई फर्क नही पड़ता कि दुर्घटना किस कारण से हुई थी या फिर इसके लिऐ सरकारी तंत्र का कौन सा हिस्सा जिम्मेदार है। सरकार ने यह समझना होगा कि समय-समय पर होने वाले रेल हादसे हो या फिर सड़क यातायात के दौरान होने वाली दुर्घटनाऐं और सामूहिक भगदड़ इन सभी घटनाओं या दुघर्टनाओं को रोकना सरकारी तंत्र की जिम्मेदारी है क्योंकि वह इस प्रकार की तमाम व्यवस्थाओं को पुख्ता करने की एवज में आम जनता से तमाम तरह के कर लेती है यह ठीक है कि इस परिपेक्ष्य में सरकारी तंत्र द्वारा विभिन्न नियम-कानून बनाऐं गये है और अधिकांशतः गड़बड़ी या दुर्घटनाऐं इन्हीं नियमों का अनुपालन न करने की वजह से होती है लेकिन इसके लिऐ भी राजनीति को ही जिम्मेदार माना जा सकता है और अधिकांश मामलों में देखा गया है कि नियमों की अवहेलना करने या फिर अपने व्यवसायिक हितों के लिऐ जानबूझकर नियम काूनन तोड़ने वालो के पक्ष में पैरोकारी करने के लिऐ सत्तापक्ष के नेताओं की ही जमात खड़ी दिखती है और खुद को कानून का पहरूआ कहने वाला पुलिसिया तंत्र तमाम कारणों से इनके समक्ष लाचार खड़ा नजर आता है। सरकार को चाहिए कि वह व्यवस्था पर लागू दोहरे तंत्र को समाप्त कर वीआईपी कल्चर से निपटने की कोशिश करे तथा जनता के बीच यह माहौल बनाया जाय कि वह शाहरूख जैसे तमाम बड़े लोगो को अपने सामान्य जीवन का एक हिस्सा माने लेकिन एक फिल्म के प्रमोशन को निकले शाहरूख से मिलने को आतुर भीड़ को संभालने में नाकाम रहा रेलवे प्रशासन और सरकारी मशीनरी अपनी व्यवस्थाओं को सुदृढ़ करने की जगह उन्हें यह सलाह देता प्रतीत हो रहा है कि उन्हें इस तरह सार्वजनिक यातायात के संसाधनों का प्रयोग नही करना चाहिऐ। इन स्थितियों को भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिऐ ठीक नही कहा जा सकता और न ही उस व्यवस्था के काम की तारीफ की जा सकती है जिसे अपनी रियाया की जान की कीमत का ही अहसास न हो लेकिन अफसोस कुछ लोग अपनी असफलताऐं छिपाने के लिऐ इस सब पर धर्म का चश्मा चढ़ाने को कोशिश कर रहे है और अपनी कमियां छुपाने के लिऐ धार्मिक वैमस्यता फैलाने से उन्हें कोई परहेज नही है। यह ठीक है कि देश की युवा पीढ़ी के एक बड़े हिस्से में नामी-गिरामी फिल्मी हस्तियों को लेकर जूनून की हद तक छुपा प्यार तथा उन्हें एक बार नजदीक से या छू कर देखने को चाहत को काफी हद तक सही नही कहा जा सकता लेकिन इस तथ्य से भी इनकार नही किया जा सकता कि हमारे नेता भी कुछ इसी तरह की लोकप्रियता चाहते है तथा चुनाव के दौरान जनता को अपने खेंमे में इक्कट्ठा करने के लिऐ उन्हें फिल्मी दुनिया की इन तमाम छोटी-बड़ी हस्तियों को अपने पाले में खड़ा कर चुनाव प्रचार करवाने या फिर चुनाव लड़वाने में कोई हर्ज प्रतीत नही होता। इन हालतों मे किसी अभिनेता या फिल्मी दुनिया की किसी भी छोटी-बड़ी हस्ती का पूरे तामझाम के साथ अपनी आने वाली फिल्म के प्रचार के लिऐ निकलना या फिर इन तमाम उद्देशयों की पूर्ति के लिऐ रेल जैसे यातायात के सार्वजनिक संसाधन का प्रयोग करना गलत कैसे कहा जा सकता है और सरकारी तंत्र अपनी असफलताओं का ठीकरा किसी अन्य के सर कैसे फोड़ सकता है।

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