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Friday, April 19, 2024

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उम्मीदों के बावजूद

सरकारी कामकाज की शैली में व्यापक फेरबदल किए बिना असंभव लगता है आम आदमी का विकास।
नए साल में उत्तराखंड सरकार में व्यापक फेरबदल की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता और न ही इस तथ्य को नकारा जा सकता है कि विधानसभा चुनावों में मिले पूर्ण बहुमत के बावजूद मौजूदा सरकार जनापेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पायी है या फिर यह भी कह सकते हैं कि राज्य की कमजोर माली हालत को डबल इंजन का सहयोग न मिल पाने के कारण नवनिर्वाचित सरकार बड़े फैसले ले पाने में खुद को असमर्थ पा रही है। हालांकि जनता के बीच त्रिवेन्द्र सिंह रावत या उनके मंत्रीमंडल का कोई व्यक्तिगत् विरोध नहीं है और न ही किसी सरकारी कार्यक्रम अथवा जनसभा के दौरान भाजपा के नेताओं के अनादर का मामला सामने आया है लेकिन प्रदेश में चल रहे तमाम तरह के आंदोलनों को देखकर यह प्रतीत होता है कि जनता वर्तमान सरकार की कार्यशैली से संतुष्ट नहीं है और उस तक सरकार की पहुंच बनाने वाले सत्तापक्ष के जमीनी कार्यकर्ताओं के एक बड़े वर्ग में भी नाराजी का माहौल है। यह ठीक है कि इस नाराजी को दूर करने के लिए भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ने 2018 में दायित्वों के बंटवारे व मंत्रीमंडल में संभावित फेरबदल का शगूफा छेड़ा है और सरकार भी व्यक्तिगत स्तर पर कार्यकर्ताओं की नाराजी दूर करने के लिए अपने मंत्रीमंडल व सहयोगियों के माध्यम से सम्मेलनों व जनता दरबार का आयोजन कर आम आदमी तक पहुंच बनाने का प्रयास कर रही है लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि शीर्ष स्तर पर किए जा रहे इस तरह के तमाम प्रयास ज्यादा प्रभावी साबित नहीं हो रहे हैं या फिर यह भी हो सकता है कि सरकारी तंत्र जानबूझकर असंतोष व नाराजी के इन सुरों को अनदेखा कर रहा हो और वक्त गुजर जाने के साथ ही साथ हालातों के खुद-ब-खुद काबू में आने का सरकार को इंतजार हो। वर्ष 2017 में जब भाजपा पूरे बहुमत के साथ सत्ता के शीर्ष पर काबिज हुई थी तो यह माना गया था कि पूर्ववर्ती सरकारों की अपेक्षा यह सरकार ज्यादा जनहितकारी साबित होगी क्योंकि सत्तावन विधायकों के बहुमत के बाद यह उम्मीद किसी को नहीं थी कि सत्ता के शीर्ष द्वारा व्यापक जनहित को अनदेखा किया जाएगा लेकिन राज्य भर में आंदोलन को लेकर ताल ठोकते दिख रहे कर्मचारी संगठनों के अलावा विभिन्न मुद्दों व मांगों के साथ आंदोलन कर रहे विभिन्न सामाजिक व राजनैतिक संगठन यह इशारा कर रहे हैं कि मौजूदा सरकार स्थितियों पर काबू पाने में किसी न किसी स्तर पर असफल है और रूठने-मनाने के इस दौर में व्यापक जनहित कहीं पीछे छूट रहा है। यह माना कि अपने अस्तित्व में आने के बाद इन नौ महिनों में त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार ने कुछ बड़े फैसले भी लिए हैं और स्थानान्तरण विधेयक को कानून का रूप देने के साथ ही साथ पलायन से जुड़े गंभीर मुद्दे पर भी आयोग का गठन कर सरकार ने बड़ा कदम उठाया है लेकिन सरकार अपनी इन तमाम उपलब्धियों को जनता के बीच रखने में असफल दिखती है और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सरकार के पास कर्ज लेकर अपने कर्मचारियों के लिए वेतन जुटाने के अलावा कोई काम नहीं है। जहां तक सरकारी कर्मकारों का सवाल है तो समाचार पत्रों पर एक नजर डालने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि राज्य सरकार का अभिन्न हिस्सा होने के बावजूद यह वर्ग भी सरकार से खुश नहीं है और प्रदेश में दिख रही कर्मचारी आंदोलनों की धमक यह इशारा कर रही है कि वर्ष 2018 पूरी तरह कर्मचारी आंदोलनों की भंेट चढ़ने वाला है लेकिन सरकार कर्मचारी संगठनों से वार्ता कर किसी निष्कर्ष तक पहुंचने के स्थान पर उन्हें धमकाकर काम निकालना चाहती है और सरकार के फैसलों व शासन स्तर से छनकर आ रही खबरों को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सरकारी तंत्र आंदोलनकारी ताकतों को जानबूझकर अनदेखा कर रहा है। शायद यही वजह है कि सरकार ने बेमौसम गैरसैण में दो दिवसीय सत्र का आयोजन कर विरोध के सुरों को तेज होने का मौका दिया है और एक लंबे अंतराल बाद एक बार फिर स्वतः स्फूर्त वाले अंदाज में एकजुट हो रही गैरसैण समर्थक ताकतों को सरकार के इस कदम से संजीवनी भी मिली है लेकिन स्थायी राजधानी के मुद्दे पर भाजपा का प्रदेश संगठन व सरकार चुप्पी ओढ़े हुए है और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि विकास के मुद्दे से जनता का ध्यान हटाने के लिए राज्य को अराजकता की ओर धकेलने का एक सामूहिक प्रयास किया जा रहा है। यह ठीक है कि सरकार में कहीं भी अंर्तविरोध की स्थिति नहीं है या फिर बड़े नेता और मंत्री खुलकर एक दूसरे के खिलाफ बोलने से बच रहे हैं लेकिन अगर कार्यकर्ता व भाजपा के प्रति प्रतिबद्ध जनप्रतिनिधियों के नजरिए से बात करें तो यह साफ दिखाई देता है कि ठीक चुनावी मौसम में भगवा ओढ़कर चुनाव मैदान में उतरे तमाम नेताओं व उनके समर्थकों को लेकर संगठनात्मक स्तर पर एक नाराजी का माहौल है और लगातार कई चुनाव जीतने के बावजूद मंत्री न बन पाए वरीष्ठ नेताओं के मन में एक कसक भी है। इस हालत में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के लिए यह एक मुश्किल सवाल है कि वह मंत्रीमंडल में रिक्त नजर आ रहे दो स्थानों समेत संभावित दायित्वधारियों को लेकर किसी भी तरह की घोषणा को किस तरह अंजाम तक पहुंचायें। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि सदन के भीतर सत्तावन विधायकों का समर्थन प्राप्त मुख्यमंत्री अथवा सरकार को आगामी वर्षों में भी किसी तरह की अस्थिरता का खतरा नहीं है और न ही हाल-फिलहाल में विधायक दल के बीच किसी भी किस्म की बगावत अथवा विरोध का खतरा है लेकिन इस सबके बावजूद सरकार कड़े फैसले लेने से डरी हुई हुई दिख रही है क्योंकि शराब बिक्री व खनन आदि से जुड़े मुद्दों पर प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में सामने आए आंदोलनों ने भाजपा की संगठनात्मक पकड़ को जनता के बीच कमजोर किया है और जनता के बीच त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार की विश्वसनीयता घटी है। शायद यही वजह है कि गाहे-बगाहे नेतृत्व परिवर्तन की चर्चाएं जोर पकड़ती दिखती हैं और मुख्यमंत्री पद के संभावित दावेदार अपनी कार्यशैली व बयानों के जरिये इन चर्चाओं को हवा देते दिखाई देते हैं। हालंाकि यह सब कुछ इतना आसान नहीं है और न ही इस तथ्य को दावे से कहा जा सकता है कि त्रिवेन्द्र सिंह रावत एक असफल मुख्यमंत्री साबित हो गए हैं लेकिन इस तथ्य को नकारा भी नहीं जा सकता कि विपक्ष के रूप में कांग्रेस व अन्य क्षेत्रीय राजनैतिक ताकतों की जनता के बीच मजबूत मौजूदगी ने सरकार की स्वीकार्यता पर प्रभाव डाला है और अगर यह सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो आने वाले समय में त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार की मुश्किलें बढ़ना तय दिखती है। हालातों के मद्देनजर यह तय दिखता है कि वर्ष-2018 में राज्य की पंचायतों व स्थानीय निकायों के चुनाव होंगे और लोकसभा चुनावों को लेकर भी उलटी गिनती प्रारंभ हो चुकी होगी। लिहाजा भाजपा के शीर्ष नेतृत्व यह कदापि नहीं चाहेगा कि व्यापक जनमत की आकांक्षा को लेकर जनता के बीच जाने से पहले पार्टी कार्यकर्ताओं व जनप्रतिनिधियों के बीच असमंजसता का माहौल दिखाई दे लेकिन सवाल यह है कि असमंजसता को दूर करने के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं और यह कैसे माना जा सकता है कि एक मुख्यमंत्री को बदलने या फिर मंत्रीमंडल में व्यापक फेरबदल करते हुए कुछ नए चेहरों को सामने लाकर हालातों पर काबू पाया जा सकता है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि अपने गठन के बाद से ही अनदेखी व विकास से जुड़े मूलभूत प्रश्नों को लेकर राज्य के एक बड़े हिस्से से कटी रही उत्तराखंड की तथाकथित जनहितकारी सरकारों ने आम आदमी को अपनी अपेक्षाएं बदलने पर मजबूर किया है और मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष या फिर विधायक निधि की बंदरबांट तक सीमित हो चुकी राजनीति ने राज्य के चुनावी समीकरणों व नेताओं की राजनैतिक प्राथमिकताओं में बड़ा बदलाव किया है। इन हालातों में पहाड़ की समस्याओं व दैनिक जनजीवन से जुड़े प्रश्नों का समाधान किया जाना इतना आसान भी नहीं है लेकिन सवाल यह है कि क्या उत्तराखंड राज्य के गठन का उद्देश्य किसी एक दल की सरकार बनने या फिर किसी नेता विशेष के सत्ता के शीर्ष पदों तक पहुंचने तक ही सीमित है। मौजूदा भागमभाग व जोड़तोड़ को देखकर तो ऐसा ही प्रतीत हो रहा है और राज्य के राजनैतिक हालात यह इशारा कर रहे हैं कि राज्य में अब तक बनी राष्ट्रीय राजनैतिक दलों की सरकारों व उन दलों के शीर्ष नेतृत्व ने सत्ता प्राप्त करना एवं पूरे पांच वर्षों तक इस पर कब्जेदारी बनाए रखना ही अपना अंतिम उद्देश्य माना है। इन हालातों में कोई भी सरकार का मुख्यमंत्री बने या फिर किसी भी नेता अथवा जनप्रतिनिधि को दायित्व या मंत्री पद से नवाजा जाय, कोई बहुत बड़ा फर्क पड़ता नहीं दिखता। इसलिए माहौल व हालातों का जायजा लेने के बाद हम यह दावे से कह सकते हैं कि वर्ष-2018 में उत्तराखंड की स्थानीय जनता या फिर विकास की आस लगाए बैठे राज्य के पहाड़ी जिलों को कुछ विशेष हासिल होने वाला नहीं है और न ही राज्य में बनी पूर्ण बहुमत वाली सरकार में नेतृत्व परिवर्तन करने मात्र से हालातों में कोई बदलाव संभव है।

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