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Friday, April 19, 2024

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इम्तहान की घड़ी

उत्तराखण्ड की नवगठित सरकार के समक्ष खुद को साबित करने की चुनौती।
उत्तराखण्ड में भाजपा के प्रचाण्ड बहुमत के साथ गठित विधानसभा के परिपेक्ष्य में यह कहना गलत नही होगा कि राज्य की जनता ने पहली बार किसी एक दल को इस हद तक जनस्वीकार्यता दी है। सबसे मजे की बात यह है कि इस चुनाव में राज्य स्तर की कोई भी समस्या चुनावी मुद्दे के रूप में सामने नही थी और न ही यह माना जा सकता है कि इस बार निवर्तमान सरकार के विरूद्ध कोई लहर थी लेेकिन मोदी के नाम की आॅधी ने जिस तरह एक ही झटके में सब कुछ बदल कर रख दिया, वह काबिले तारीफ है। हाॅलाकि अभी नई सरकार को ढर्रे पर आने में वक्त लगेगा और शीघ्र ही होने वाले स्थानीय निकाय व पंचायत चुनावों के अलावा लोकसभा के चुनावों में भी इस लहर को बनाये रखने की चुनौती नई सरकार के सामने होगी लेकिन पूर्व में हुऐ अनुभवों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुॅचना मुश्किल नही है कि भाजपा की वर्तमान सरकार उत्तराखण्ड की जनता से जुड़ी मूलभूत समस्याओं के समाधान को लेकर चिन्तित दिखाई देगी। यह ठीक है कि केन्द्र में भी समान विचारधारा वाली सरकार होने के चलते उत्तराण्ड को आर्थिक संकटो का सामना शायद न करना पड़े और अपनी निर्धारित कर्ज सीमा को पूरी तरह छू चुकी उत्तराखण्ड सरकार को केन्द्र के जरिये कुछ ज्यादा अनुदान या आर्थिक मदद प्रदान हो लेकिन यहाॅ सवाल बजटीय प्रावधान या धन की व्यवस्था का नही है बल्कि असल चिन्ता आंवटित धन के सही उपयोग की है और हमें यह कहने में कोई हर्ज नही दिखता कि सदन में कमजोर दिखता विपक्ष नवनिर्वाचित सरकार के मन्त्रियों व विधायकों की शाह खर्ची पर किसी भी तरह की कटौती या रोक लगाने का साहस भी कर पायेगा। अगर तथ्यों के आधार पर बात करे तो हम पाते है कि हालियाॅ विधानसभा चुनावों में विजयी तमाम विधायको या फिर चुनाव प्रचार के लिऐ उत्तराखण्ड आने वाले प्रधानमंत्री समेत तमाम केन्द्रीय मन्त्रियों व विपक्ष के नेताओ ने चुनावों के दौरान स्थानीय मुद्दो, समस्याओं या फिर विकास के नारे को चुनावी मुद्दा नही बनाया और हरीश रावत को सत्ता से बेदखल करने के नारे के साथ मोदी के नाम या फिर केन्द्र सरकार द्वारा इन पिछले तीन वर्षो में किये गये कामों को आगे रख चुनाव जीतने में सफल रही भाजपा को अभी यह अहसास भी नही है कि विकास के सबसे निचले पायदान पर बैठी जनता को सरकार से अपेक्षाएं क्या है लेकिन नवनिर्वाचित विधायको में मन्त्री व मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर साफ दिख रही ललक यह अहसास करा रही है कि शीघ्र ही अस्तित्व में आने वाली उत्तराखण्ड की यह चैथी जनता के द्वारा चुनी गयी सरकार अपने नौवे मुख्यमंत्री के साथ सत्ता की मलाई चट करने के खेल में व्यस्त हो जाना चाहती है और किसी निर्वाचित विधायक, स्थानीय सांसद या फिर जिम्मेदार पदो में बैठे भाजपा के नेताओ को यह सोचने की अभी फुर्सत ही नही है कि वह जनता द्वारा दिये गये इस प्रचण्ड बहुमत का कर्ज कैसे चुकाऐंगे। यह ठीक है के अपने चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा ने पहाड़ो से होने वाले पलायन, बदहाल शिक्षा व्यवस्था व खस्ताहाल स्कूल, अस्पताल और सड़क समेत पेयजल व विछुत आपूर्ति जैसी तमाम छोटी-बड़ी समस्याओं को चर्चा का विषय बनाने की कोशिश की थी लेकिन असल मुद्दा हरीश रावत हटाओं और मोदी लाओ तक सीमित होकर रह गया। इन हालातों में यह एक अहम् सवाल है कि क्या नवनिर्वाचित सरकार उपरोक्त सभी ज्वलन्त समस्याओं व जनहितकारी मुद्दो को लेकर काम करने के लिऐ तैयार है और सरकार के गठन से लेकर मुख्यमंत्री के चयन तक महत्वपूर्ण निभाने वाली मोदी व अमित शाह की जोड़ी इस परिपेक्ष्य में नवगठित सरकार को क्या दिशा निर्देश देती है। भाजपा को मिले पूर्ण बहुमत को देखते हुऐ अपेक्षा की जानी चाहिऐं कि इस बार गठित होने वाली सरकार को बिना किसी खींचतान के पाॅच साल काम करने का मौका मिलेगा और दायित्वों, लालबत्ती या फिर मन्त्रीपद को लेकर मारामारी भी कम होगी लेकिन भाजपा में शामिल होकर चुनाव जीतकर आने वाले कई काॅग्रेसी चेंहरे आम मतदाता को आशंकित भी करते है और ऐसा मालुम देता है कि वर्तमान में दिख रहा भाजपाई जोश व सर झुकाकर हाईकमान के आदेशों का अनुपालन करने की चिन्ता क्षणिक ही है। हाॅलाकि केन्द्रीय नेताओ के आश्वासनों के अनुरूप मौजूद विधायको के बीच से किया गया मुख्यमंत्री का चुनाव अश्वस्त करता है कि भाजपा के बड़े नेता अपनी कथनी और करनी के अन्तर को पाटने में सफल है लेकिन यह स्थितियाॅ कब तक ऐसी ही बनी रहती है कहा नहीं जा सकता। लम्बे संघर्षो के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आये उत्तराखण्ड का र्दुभाग्य रहा है कि उसे अपने गठन के शुरूवाती दौर से ही सही नेतृत्व नही मिल पाया और शायद यही वजह है कि इस पहाड़ी क्षेत्र का मतदाता अपनी सरकार या जनप्रतिनिधियों से व्यापक जनहित की उम्मीदें छोड़कर छोटे व निजी हित साधने के जुगाड़ में लग गया है। परिणामस्वरूप पहले ही आम चुनाव से यह माना जाने लगा कि इस पहाड़ी राज्य को कर्मठ व जनहित के लिऐ समर्पित नेताओं का नही बल्कि पूॅजीपतियों व ठेकेदारो के पिछलग्गू दलालो की जरूरत है और इस साधारण सी सोच ने छोटे-छोटे विधानसभा क्षेत्रो वाले उत्तराखण्ड विधानसभा चुनावों को निहायत ही मंहगा बना दिया। वर्तमान में हम इस गहराई में नही जाना चाहते कि चुनावी जीत के लिये भाजपा, काॅग्रेस समेत अन्य क्षेत्रीय पार्टियों या फिर निर्दलीय ने क्या खर्च किया लेकिन चैथी विधानसभा के गठन के इस शुरूवाती अवसर पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि अगर अब भाजपा चाहे तो इस राज्य की दिशा व दशा दोनो को ही बदला जा सकता है। भाजपा के प्रदेश स्तरीय व स्थानीय नेताओ को यह मानकर चलना होगा कि हालिया विधानसभा चुनावों में भाजपा को हासिल दो तिहाई से भी अधिक बहुमत सत्ता पर सम्पूर्ण कब्जेदारी के बड़े अवसर से कहीं ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी है और इस जिम्मेदारी को पूरा करने के लिऐ भाजपा के कार्यकर्ताओं व नेताओं के साथ ही साथ जनप्रतिनिधियो व मन्त्रियों या विधायको ने भी पूरी तत्परता व तन्मयता से काम करना होगा। हमें उम्मीद है कि टीम मोदी इस स्वर्णिम अवसर को यूं ही नही गॅवायेगी और इन पाॅच सालो के कार्यकाल में भाजपा की सरकार उत्तराखण्ड को कुछ ऐसी यादे देने की केाशिश करेगी जिन्हे इतिहास में दर्ज किया जा सके।

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