आजादी के इन सत्तर वर्षो में लगातार मजबूत होते दिख रहे लोकतंत्र के लिऐ परीक्षा की घड़ी
देश की आजादी का इतिहास सत्तर साल पुराना हो गया और इन सत्तर सालों में आजादी के आन्दोलन का दीदार करने वाली पीढ़ी लगभग-लगभग सुपुर्देखाक हो गयी या फिर सत्ता के शीर्ष पर काबिज राजनेताओं व राजनैतिक विचारधाराओं ने उन तमाम तथ्यों, बंदिशों व मुद्दो को अनदेखा करना शुरू कर दिया जिनके चलते इस देश की जनता ने सिर्फ बोलने या राजनैतिक फैसले खुद लेने की नही बल्कि सोचने व अपने भविष्य को संवारने के फैसले खुद लेने के लिऐ पूरी आजादी की मांग उठायी थी। भारत माता की जय या वंदे मातरम् जैसे नारों की परिकल्पना किसी क्षणिक आवेश या राजनैतिक जद्दोजहद की देन नही थी बल्कि आम आदमी को एक विचारधारा से जोड़ते हुऐ साथ लेकर चलने की मजबूरी ने ऐसे तमाम गीतो, नारों व तर्को को जन्म दिया था जिसमें आजाद भारत का स्वर्णिम भविष्य स्पष्ट रूप से चमकता हुआ दिखाई देता था लेकिन सवाल यह है कि क्या इन पिछले साठ-सत्तर सालों मे हमने वह सबकुछ हासिल किया जिसके लिऐ हमारे पुरखो ने अपनी जान और एक बेहतर जिन्दगी की परवाह न करते हुऐ एक ऐसी जंग का ऐलान किया था जो न सिर्फ सालों साल चली बल्कि जिसमें अपने प्राणों की बाजी लगा देने वाले अमर शहीदों ने अपने परिवार व उनके भविष्य की परवाह किये बिना ही खुद को न्यौछावर कर दिया। आज कुछ लोग कहते है कि गांधी ने क्या किया या फिर देश की आजादी के बाद पहले प्रधानमंत्री बने पं. जवाहर लाल नेहरू का देश की आजादी व तरक्की में क्या योगदान रहा लेकिन ये वह तमाम लोग है जिन्होंने आजाद भारत की खुली हवा में सांस लेना शुरू किया है और जिनके लिऐ देश की तरक्की के मायने राजनैतिक फासीवाद से शुरू होते है। यह ठीक है कि देश की आजादी के वक्त पाकिस्तान का निर्माण और अंग्रेजों के इशारे पर हुऐ इस विभाजन के बाद देश भर में हुऐ हिन्दू-मुस्लिम दंगे एक ऐसी भूल थी जिसे अब कभी सुधारा नही जा सकता लेकिन क्या इस भूल के लिऐ सिर्फ कांग्रेस या गांधी ही जिम्मेदार थे? तत्कालीन इतिहासकारों को पढ़ने व आजादी के आन्दोलन में भागीदारी करने वाले गरम व नरम दल के तमाम क्रान्तिकारी विचारकों की मनोदशा को समझने की कोशिश करने पर हम पाते है कि उस वक्त भी हिन्दू व मुसलमानों के बीच तमाम प्रकार की विघटनकारी ताकतें काम कर रही थी जिन्होंने आजाद भारत के निर्माण की जंग में भागीदारी के स्थान पर अपने व्यक्तिगत् स्वार्थो या फिर यूँ कहे कि धर्म को बचाने की लड़ाई लड़ना ज्यादा न्यायोचित समझा। यहाँ पर यह कहने में कोई हर्ज नही है कि इस देश के वाशिन्दों के लिऐ, इस्लाम अक्रांन्ता का धर्म था और देश की सत्ता पर अंग्रेजों के काबिज होने के बाद मुगल सम्राट या तो पूरी तरह टूट चुके थे या फिर बर्बाद हो चुके थे लेकिन अपनी सैन्य ताकत को बढ़ाने व सत्ता पर कब्जेदारी के दौरान धर्मान्तरण के नाम पर की गयी जोर-जबरदस्ती के चलते उन्होंने जिस स्थानीय आबादी को अपने पक्ष में खड़ा किया था, उसके पूरी तरह भारतीय होने व भारत के रीति-रिवाजों से जुड़े होने के बावजूद कुछ नेताओं को यह आबादी स्वीकार्य ही नही थी जिसके चलते तत्कालीन आबादी के एक बड़े हिस्से के समक्ष अपनी पहचान, रोजगार व रिहाइश को लेकर बढ़े सवाल खड़े हो गये थे। इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि देशभर में हुऐ आजादी के तमाम छोटे-बड़े आन्दोलनों में स्थानीय जनता के हर तबके ने भागीदारी की और गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस के बेनर तले आकर अपनी बात कहने या फिर आजादी के आन्दोलन में भागीदारी को उस वक्त विशेष तवज्जों दी जाती थी। शायद यहीं वजह रही कि तमाम विपरीत विचारधाराओं वाले संगठनों ने भी अपनी बात जनता तक पहुँचाने के लिऐ कांग्रेस के मंच का बखूबी प्रयोग किया और जिसे ऐसा करने का मौका नही मिला या फिर जिसकी बात उस वक्त नही सुनी गयी, वह विचारधारा से गांधी विरोधी हो गया लेकिन तत्कालीन भारत में गांधी की जनस्वीकार्यता को देखते हुऐ वह विरोध कुछ समाचार पत्रों या फिर सीमित सदस्य संख्या वाली बैठकों तक ही रहा और कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं ने विरोध के इन सुरों में से अधिकांश को तवज्जों देकर अपने साथ मिलाया जिससे आन्दोलन को मजबूती देने व एक जन नेता की आवाज पर जनता को सड़कों में उतारने के मामले में काफी मदद भी मिली। गांधी की जनस्वीकार्यता देश के विभाजन के वक्त भी काम आयी और दंगाईयों व बलवाईयों के काफी प्रयासों के बावजूद भी वह सबकुछ नही हो पाया जो उन्होंने चाहा था। यह तथ्य किसी से भी छुपा नही है कि तत्कालीन पाकिस्तान में उसी वक्त से कट्टरपंथियों का शासन हो गया जिसके चलते वहाँ रहने वाले हिन्दू धीरे-धीरे कर कम होते चले गये या फिर भारत सरकार ने उन्हें शरणार्थी के रूप में अपने देश वापस बुला लिया लेकिन भारत में गांधीवादी विचारधारा के शासन के चलते मुस्लिम आबादी को देश छोड़ने की कोई जरूरत नही पड़ी और आज भारतीय मुस्लिमों की कुल संख्या पाकिस्तान की जनसंख्या से ज्यादा है तथा विभाजन के वक्त भारतीय इलाकों को छोड़कर पाकिस्तान की ओर रूख करने वाले मुहाजिरों के मुकाबले उस वक्त भारत में ही रह गये मुसलमानों को वह तमाम हक व सहूलियत हासिल है जो इस देश की आम जनता को मिलनी चाहिऐं। लिहाजा फिरकापरस्त ताकतें फिर परेशान है और धर्म, भाषा, जाति या फिर लिंग के आधार पर मतदाताओं की लामबंदी के लिऐ नये सिरे से कोशिशें की जाती है। ऐसे वक्त में इस देश को एक बार फिर गांधी जैसे विचारक व जननेता की जरूरत थी लेकिन मतलबपरस्त हो चली राजनीति के इस दौर में गांधी की अमरता के नारे से गौडसे के कृत्य की गूँज ज्यादा तेज सुनाई दे रही है और जनसामान्य को लामबंद कर गांधी के पीछे एकजुट करने में अहम् भूमिका निभाने वाली कांग्रेस वैचारिक रूप से जीर्ण-शीर्ण हो गयी है। यह सत्य है कि लगातार सत्ता के शीर्ष पर बने रहना किसी नेता या राजनैतिक दल की व्यवहारिकता व मानसिकता को बदल देता है और सत्ता संघर्ष के लिऐ शासकों, राजनेताओं या फिर राजनैतिक विचारधाराओं के पीछे खड़ी नजर आने वाली जनता अपनी महत्वाकांक्षाओं व प्राथमिकताओं को वक्त की जरूरत व शासक वर्ग की व्यवाहारिकता के हिसाब से तेजी से बदलती रहती है जिसके कारण किसी भी राजवंश, राजघराने, व्यवस्था अथवा राजनैतिक दल के शासन को स्थायी नही माना जा सकता। यह ठीक है कि इन पिछले सत्तर वर्षों में से अधिकांश समय तक देश के विभिन्न प्रदेशों के अलावा केन्द्र में भी अपनी सरकार बनाने वाली कांग्रेस ने अपने बदलते स्वरूप के बावजूद भारत के लोकतंत्र को कई महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ दी तथा राष्ट्र प्रगति की नई उँचाईयो को छूते हुऐ आम आदमी की दैनिक जरूरतें पूरी करने का मिशन विलासिता की ओर बढ़ा और व्यवस्था ने उदारवाद के नाम पर पूंजीवाद को अंगीकार किया। उपयोग के स्थान पर भोग में बदली नई पीढ़ी की मानसिकता ने कुछ नई जरूरतों व नारों को भी जन्म दिया और राष्ट्रवाद की परिभाषा व इसे प्रकट करने के अंदाज में तेजी से बदलाव आया। कांग्रेस इस तेजी के साथ अपने स्वरूप को नही बदल पायी और समय बदलने के साथ ही साथ उसमें बढ़ती जा रही विकृतियों ने उसकी जनस्वीकार्यता को कम किया। लिहाजा देश बहुदलीय राजनैतिक व्यवस्था की ओर बढ़ता दिखा और केन्द्र ही नहीं बल्कि कई राज्यों में दो या उनसे अधिक दलों की गठबंधन सरकारों का दौर खूब चला जो गाहे-बगाहे वर्तमान में भी दिखाई देता है लेकिन इन गठबंधन सरकारों की खासियत रही इनमें नजर आने वाली खामियों का श्रेय लेने को कोई राजनैतिक दल तैयार नही दिखता और लगातार बनते-बिगड़ते दिखाई देने वाले बेमेल-गठबंधन की बीच सरकार की असफलताओं का श्रेय सहयोगी पक्ष पर डालते हुऐ दोबारा सत्ता के शीर्ष पदो पर कब्जेदारी की नीयत से नया गठबंधन बनाने में नेताओं को देर नही लगती। इसलिऐं आजादी के इन सत्तर सालों के अन्तिम दशक में देश की जनता ने अपने तमाम पुराने फैसलों को पलटते हुऐ न सिर्फ केन्द्र मेें पूर्ण बहुमत वाली सरकार दी बल्कि कई राज्यों में भी अपने इस अनुभव को दोहराया लेकिन मात्र साढ़े तीन वर्षो में ही यह अंदाजा आ गया कि वर्तमान व्यवस्था में भी देश विचारधारा के नाम पर निरंकुशता की ओर बढ़ रहा है और सत्ता के शीर्ष पदोे को हासिल करने के बाद कुछ नामचीन चेहरें इस पर अपनी कब्जेदारी बनाये रखने के लिऐ लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की परिभाषा ही बदल देना चाहते है। अब देखना यह है कि बदली हुई परिभाषाओं तथा अघोषित रोक वाली अंदाज में मनमर्जी थोपने या फिर विचारधारा के नाम पर जोर -जबरदस्ती का ऐजेण्डा लागू करने का यह खेल कितना लम्बा चलता है और आजादी के मतवालों की शहादत की बुनियाद पर खड़ी हमारी आस्था, विश्वास या हौंसला एक हिटलरशाही सरकार के समक्ष कितनी देर तक टिक पाता है।