पाकिस्तान के इस्लामाबाद में बाबा शहबाज कलन्दर की दरगाह पर हुआ आंतकी हमला सूफियाना रवायत को खत्म करने की साजिश।
पाकिस्तान में सूफी सन्त लाल शहबाज कलन्दर की दरगाह पर हुऐ आत्मघाती हमले के बाद यह साफ हो गया है कि आंतक के सौदागर किसी भी कीमत पर हिन्दुस्तान व पाकिस्तान का मेल नही चाहते और न ही उनकी नजर में इस्लाम के सूफी सम्प्रदाय की कोई अहमियत है। इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि एक अर्सा पहले गैर-इस्लामिक मुल्क माने जाने वाले हिन्दुस्तान व पाकिस्तान समेत अन्य तमाम मुल्कों में इस्लाम का पर्दापण खाड़ी देशो से मुसलिम आक्रान्ताओं के रूप में हुआ और तमाम मुसलिम आक्रमणकारियों ने तत्कालीन भारत के विभिन्न हिस्सो पर हमलावर होकर न सिर्फ लूट-पाट की बल्कि छल व बल के बलबूते जीते गये राजपाठ पर अपना कब्जा बनाये रखने के लिऐ तलवार की नोक पर धर्मान्तरण का कार्यक्रम भी चलाया। किसी डर अथवा राजसत्ता के लोभ में मुसलमान बने यह तमाम लोग अपने पहनावें व खानपान के तौर तरीको में बदलाव लाकर आक्रान्ता शासक वर्ग जैसे दिखने भले ही लगे हो लेकिन तलवार का डर इनकी सोच में कोई विशेष बदलाव नही ला पाया और न ही इनके धार्मिक रीति-रिवाज व जश्न मनाने के तौर-तरीकों में कोई बहुत बड़ा फर्क आया। उपरोक्त के अलावा युद्ध के दौरान जिन महिलाओं व राज परिवार से जुड़ी रानियों को उनके दास-दासियों समेत गिरफ्तार कर जोर-जबरदस्ती इस्लाम मानने पर मजबूर किया गया या फिर जिन स्त्रियों को अनिच्छापूर्वक आक्रान्ता का गर्भधारण करने के मजबूर होना पड़ा उन्होने भी एक लम्बे अर्से तक खुद को व अपनी आगे आने वाली पीढ़ी को हिन्दू धर्म के ही नजदीक माना। इन तमाम लोगो के हिन्दू धर्म में वापसी के रास्ते हिन्दू कट्टरपंथियों ने बंद कर दिये और मजबूरन उस दौर की आबादी के एक बड़े हिस्से को मुसलमान मान लिया गया लेकिन इन तमाम मुसलमानों को तत्कालीन सूफी सन्तो ने अपनाया और दोनो ही सम्प्रदायों के बीच एक रास्ता निकालकर ईश्वर के साकार स्वरूप की इबादत की जाने लगी। पूजा और अजान के सामूहिक अंदाज में अल्लाह की इबादत करने वाले इन तमाम सूफी संतो ने न सिर्फ संगीत को अपनी साधना का जरिया बनाया बल्कि तल्कालीन नवाबो, सुल्तानो व राजा-महाराजाओं को अपने कई चमत्कार व जलवे भी दिखाये जिसके चलते हिन्दू व मुसलिम सम्प्रदाय के बीच की कड़ी माने जाने वाले सूफी सम्प्रदायों को दोनो ही धर्मो के मानने वालो के बीच मान्यता मिली। शायद यही वजह है कि इस्लाम में बुतपरस्ती को मान्यता न होने के बावजूद भी विभिन्न दरगाहों पर इबादत के लिये जाने वालो व मन्नत पूरी होने पर चादर चढ़ाने वालो की संख्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है और इस्लाम से कोसो दूर का भी वास्ता न रखने वाले हिन्दू जियारीनों का भी जारतों व दरगाहों पर विश्वास देखने काबिल है। मूलतः इस्लाम से ताल्लुक रखने वाले सूफी सन्तो की यह लोकप्रियता तथा इस्लाम के अलावा अन्य धर्माे को मानने वाले जनसामान्य को अपने साथ लेकर चलने की इन सूफी सन्तो की चाहत इस्लामी कट्टरपथिंयो की ही नही बल्कि हिन्दू कट्टरपंथियो के लिऐ भी परेशानी का सबब रही है और इन दोनों ही धर्मो के जुड़े बड़े नेता व धर्मगुरू गाहे-बगाहे इस पर चिन्ता व्यक्त करते हुऐ अपने-अपने धर्म के मानने वाले लोगों से इस तरह के आंडबरो से दूर रहने की अपील खुले व गुपचुप तरीके से कई बार कर चुके है लेकिन ताकत के बल पर इस्लाम का परचम लहराने की बात करने वाले मुस्लिम अतिवादी इस मामले में एक कदम और आगे बढ़ना चाहते है शायद इसीलिऐं उन्होंने इस किस्म की जारतों व दरगाहो में एकत्र होने वाली जयारीनों की भीड़ पर डर का साम्राज्य कायम करने के लिऐ पाकिस्तान के इस्लामाबाद में सूफी सन्त लाल शहबाज कलन्दर की दरगाह में इस आत्मघाती हमले को अंजाम दिया है। पाकिस्तान की मुश्किल यह है कि इस देश की कुल आबादी का आधे से ज्यादा हिस्सा अपनी सांस्कृतिक विरासत के रूप में बुतपरस्ती के इस सूफियाना अन्दाज की न सिर्फ हिमायत करता है बल्कि जारतों पर चादर चढ़ाने के रिवाज व देश के विभिन्न हिस्सो में होने वाले उर्स पाकिस्तानी संस्कृति का एक अहम् हिस्सा रहे है। इन हालातों में पहले से ही संकटो से जूझ रहे पाकिस्तान की मजबूरी है कि वह अपने देश के विभिन्न हिस्सो से उठ रहे विद्रोही सुरो को दबाने के साथ ही साथ तथाकथित जेहादियों द्वारा हाल ही में अन्जाम दिये गये इस कारनामो का विरोध कर अपनी रियाया के एक बड़े हिस्से के गुस्से को शान्त करने की कोशिश करे। शायद यही वजह है कि पाकिस्तान सरकार ने इस्लामाबाद में हुऐ हालिया आत्मघाती हमले के बाद आंतकियों पर एक बड़ा हमला कर सौ से ज्यादा जेहादियों को मार गिराया और कबायली क्षेत्र खुर्रम, बलूचिस्तान, खैबर पख्तूनख्वा प्रान्त व पंजाब के सरगोधा आदि क्षेत्रो में आंतकियों के खिलाफ बड़ा अभियान छेड़ने की बात की जा रही है लेकिन इस तरह की खबरों से आंतक विरोधी ताकतें या पल-पल पाकिस्तान समर्पित आंतकियो के हमले का दंश झेल रही भारत की जनता खुश नहीं हो सकती क्योंकि पाकिस्तान सरकार द्वारा निचले स्तर पर सम्भावित जन विद्रोह के डर से उठाये गये इस आंतक पर हमलावर होने के कदम का भारत में आंतकवाद बढ़ाने या भारत विरोधी ताकतों को शह देने से कोई लेना देना नही है। हालातों के मद्देनजर भारत सरकार को चाहिऐं कि वह न सिर्फ सीमावर्ती क्षेत्रो पर होने वाली घुसपैठ व देश के विभिन्न हिस्सों में होने वाली हर छोटी-बड़ी वारदात पर पूरी नजर रखे बल्कि हिन्दू-मुसलिम एकता की आधारभूत स्तम्भ लगने वाली सूफी सन्तो की रवायत को बढ़ाने की भी पूरी कोशिश की जाय। हमें याद रखना होगा कि बगदाद से बाजरिया ईरान व अफगानिस्तान आये बाबा शहबाज कलन्दर के पुरखो ने जब अपना इस्लामिक सफ़र शुरू किया तो उस वक्त देश दुनिया के एक बड़े हिस्से पर हिन्दुस्तानी संस्कृति का असर मौजूद था और इस तथ्य को नकारा नही जा सकता कि फारसी जुबान के कवि रूमी के समकालीन माने जाने वाले बाबा शहबाज पर हिन्दी के भक्तिकाल के सन्त कवियों की छाप स्पष्ट दिखती है। उनकी लिखी किताबो मिजान-उस-सुर्फ, किस्म-ए-दोयुम अक्द और जुब्दार को आज भी सूफियाना गायन परम्परा का बेहतरीन संकलन माना जाता है। सूफी सन्त अमीर खुसरो ने बाबा शहबाज कलन्दर के सम्मान में ‘दमादम मस्त कलन्दर’ लिखा था जिसे बाबा बुल्ले शाह ने कुछ बदलाव के साथ जनता के बीच पेश किया लेकिन इस गीत की लोकप्रियता मात्र से ही यह अन्दाजा लगाया जा सकता है कि सूफी परम्परा व इस परम्परा पर विश्वास करने वाले लोग तत्कालीन समाज में कितने लोकप्रिय रहे होंगे।
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