मोदी व अमित शाह की जोड़ी का राजनैतिक भविष्य तय करेंगे पाॅच राज्यों के चुनावी नतीजे।
उत्तर प्रदेश के चुनाव मैदान में उतरी अखिलेश-राहुल की जोड़ी जनता को किस हद तक अपने पक्ष में करने में कामयाब रहती है तथा कई चरणों में चल रहे उत्तर-प्रदेश के चुनावों में मोदी इफेक्ट किस हद तक चल पाता है, इन तमाम कयासों पर आगामी ग्यारह मार्च के बाद ही विराम लगेगा लेकिन पाॅच राज्यों के इन चुनावों के बाद यह लगभग तय होता दिख रहा है कि अजेय माने जा रहे नरेन्द्र मोदी के भाजपाई दुर्ग को अब काॅग्रेस की ओर से चेतावनी मिलने लगी है और स्थानीय क्षत्रपों को आगे करने के स्थान पर खुद के नाम पर वोट माॅगने की यह मोदी शैली भाजपा के राजनैतिक जनाधर के लिऐ नुकसानदायक साबित हो सकती है। इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि मीडिया के एक हिस्से को अपने प्रभाव में लेकर छवि निर्माण की परम्परा के माहिर माने जाने वाले नरेन्द्र मोदी ने गुजरात की सत्ता पर काबिज रहते हुऐ कई तरह के प्रयोग किये और अपने इसी हुनर व कलाबाजी के चलते वह कई बड़े नेताओ को पछाड़कर न सिर्फ प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन बैठे बल्कि उनके नेतृत्व में भाजपा ने लोकसभा चुनावों में पूर्ण बहुमत भी प्राप्त किया। इसके बाद जीत का यह सिलसिला इसी तरह चलता रहा और जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में भाजपा ने पीडीएफ के साथ गठबन्धन सरकार बना अविश्वसनीय नतीजे प्रस्तुत किये। हाॅलाकि अपनी इन तमाम जीतो को सुनिश्चित करने के लिऐ भाजपा ने काॅग्रेस व अन्य विपक्षी संगठनो में जमकर सेंधमारी की और अन्य दलो के कई भ्रष्ट व चर्चित चेंहरो को लोकसभा या विधानसभा चुनावों में भाजपा का प्रत्याशी बना मोदी व उनके सहयोगियों ने यह करिश्मा कर दिखाया लेकिन यह माना गया कि अपने गठन से वर्तमान तक लगभग सत्ता से बाहर रहने वाले एक दल के लिऐ यह तरीका गलत नही है और न ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का चेहरा आगे कर हर छोटा-बड़ा चुनाव लड़ने के भाजपाई तरीके पर किसी को ऐतराज ही हुआ परन्तु दिल्ली के विधानसभा चुनावों में अपने संगठन से जुड़े तमाम छोटे-बड़े नेताओं को दरकिनार कर अन्ना के आन्दोलन में केजरीवाल की सहयोगी रही किरन वेदी को आगे कर चुनाव मैदान में उतरना भाजपा को भारी पड़ा और यहीं से भाजपा संगठन के भीतर व बाहर मोदी के इन क्रियाकलापो को लेकर एक बहस सी छिड़ गयी। यह ठीक है कि संगठन के शीर्ष पद पर अपने प्रमुख विश्वसनीय साथी अमित शाह की ताजपोशी कर मोदी ने इस तरह की चर्चाओं को बाहर नही आने दिया और न ही ठीक चुनावी मौसम में होने वाली जोड़तोड़ के जरिये संगठन का दायरा बढ़ाने व बाहर से आने वाले लोगो को सीधे प्रत्याशी घोषित किये जाने का खुला विरोध ही होता दिखा लेकिन भाजपा की राजनीति में स्थापित तमाम छोटे-बड़े नेताओं ने इसे अपनी सम्प्रभुता व अधिकार क्षेत्र पर हमला माना और पार्टी द्वारा अधिकृत प्रत्याशी के खिलाफ प्रचार करने व निर्दलीय रूप से चुनाव मैदान में उतरकर संगठन को नुकसान पहुॅचाने के अनेक मामले सामने आने लगे। नतीजतन लगातार जीत के साथ आगे बढ़ रही भाजपा का चुनाव परचम दिल्ली के बाद बिहार विधानसभा चुनावों में भी थमता दिखा और अब हालात इशारा कर रहे है कि पाॅच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी यही भी भीतरीघात भाजपा को भारी पड़ने वाला है। मोदी व अमित शाह की जोड़ी ने राजनीति में कई नये प्रयोग करने की कोशिश की है और इस तथ्य से भी इन्कार नही किया जा सकता कि हिन्दुत्व को लेकर आजमाया गया भाजपाई पेंतरा इन पाॅच राज्यों के विधानसभा चुनावों में ही नही बल्कि आगामी लोकसभा चुनावों में भी भाजपा का सबसे कारगर हथियार हो सकता है लेकिन इसका इस्तेमाल करने के लिऐ मोदी व अमित शाह ने तमाम भाजपाई दिग्गजों को चुनाव के मैदान में लाना होगा। हालात यह इशारा कर रहे है कि मोदी व अमित शाह की जोड़ी हर चुनावी जंग की बागडोर अपने हाथ में रखकर राज्य स्तर पर नया नेतृत्व पनपने नही देना चाहती और न ही भाजपा की राजनीति में स्थापित पुराने चेहरो को चुनाव प्रचार की जिम्मेदारी सौंप उन्हे अपना गुट व कद बढ़ाने की इजाजत पार्टी हाईकमान द्वारा दी जा रही है। हालातों के मद्देनजर मोदी भाजपा के एकमेव व सर्वमान्य नेता नजर आते है और भाजपा के रणनीतिकारों के चुनाव प्रचार के अन्दाज व नारों की तल्खी को देखकर यह साफ लगता है कि अपने नेता व चुनावी चेहरे के रूप में किसी और को बर्दास्त करने के लिऐ भाजपा के कार्यकर्ता तैयार ही नही है लेकिन अगर हालातों पर गौर किया जाय तो यह साफ दिखता है कि मोदी को प्रायोजित करने वाले लोग यह नही चाहते कि हाल-फिलहाल मोदी के अलावा भाजपा का अन्य कोई चेहरा आगे आये। शायद इसीलिऐं नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही न सिर्फ आडवाणी और मुरली मनोहर सरीखे पुराने नेताओं को मुख्यधारा की राजनीति से किनारे कर दिया गया बल्कि विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों में इस तथ्य को हमेशा ध्यान में रखा गया कि व्यापक जनाधार वाले माने जाने वाले राजनाथ सिह, सुषमा स्वराज व उमा भारती सरीखे नेताओं के सीमित कार्यक्रम ही चुनावी प्रदेशों में लगे और विभिन्न राज्यों में जनता की नब्ज पहचानने का दावा करने वाले भाजपा के स्थापित नेताओ को प्रदेश की राजनीति से दूर रखते हुऐ उनका जनाधार सीमित किया जाय। यह सारा गणित अभी हाल-फिलहाल तक तो ठीक बैठा है और मोदी के नाम के हल्ले से प्रभावित संघ के तमाम बड़े चेहरो ने भी अमित शाह व मोदी की इस जोड़ी के हर निर्णय को जस का तस स्वीकार कर लिया है क्योकि उन्हे लगता है कि अगर एक बार सम्पूर्ण भारत के अधिकांश राज्यों की सत्ता पर भाजपा काबिज हो गयी तो वह सम्पूर्ण राष्ट्र में संघ का हिन्दुत्ववादी ऐजेण्डा आसानी से लागू कर सकते है लेकिन इधर नोटबन्दी पर आये सरकार के एक फैसले के बाद भाजपा ही नही बल्कि संघ का भी आधारभूत समर्थक माना जाने वाला व्यापारी (लाला) समुदाय मोदी के इस फैसले से खुश नही बताया जाता और अगर यह खबर ठीक है तो आगे आने वाले वक्त में मोदी सरकार की मुश्किलें बढ़ सकती है क्योकि इस वर्ग की भाजपा से नाराजगी के परिणाम पंजाब, उत्तराखण्ड व उत्तर प्रदेश के चुनावों में भाजपा को हार की कगार पर लाकर खड़ा कर सकते है और अगर ऐसा होता है तो यह हार भाजपा को मोदी विरोधियों के लिऐ एक मौके की तरह होगी जिसका फायदा उठाने के लिऐ केन्द्र सरकार व भाजपा संगठन द्वारा हाल ही में लिये गये तमाम फैसलो को एक बार फिर सवाल खड़े किये जाने तय है।