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Friday, April 19, 2024

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आम आदमी की जेब पर डाका

बैंकों द्वारा अपने ग्राहकों को पूर्व सूचना दिए बिना ही उनके खातों में की जा रही है कई तरह की कटौतियाँ।
आर्थिक सुधारों के क्रम को आगे बढ़ाते हुए सरकार ने जब आम आदमी को बैंकों से जोड़ने की पहल की तो यह माना गया कि सरकार लेन-देन के मामले में पारदर्शिता अपनाते हुए भ्रष्टाचार को कम करने का प्रयास कर रही है और जन सामान्य के दैनिक जीवन में आने वाली दुश्वारियों को समझते हुए आर्थिक लेन-देन की प्रक्रिया को सरल बनाने की दिशा में सरकार का यह पहला प्रयास है। इसके तत्काल बाद सरकार द्वारा एकाएक ही नोटबंदी की घोषणा की गयी और यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि राष्ट्र को किसी भी प्रकार का आर्थिक सम्बल देने में असफल रही नोटबंदी की यह योजना एक बार फिर जनसामान्य को ही भारी पड़ी और उसने इसे राष्ट्रहित में समझते हुए किसी भी स्तर पर सरकार का कोई विरोध नहीं किया लेकिन सरकारी हुक्मरानों ने बिना किसी योजना के एक ही झटके में लागू की गयी नोटबंदी की इस योजना को बड़ी ही चालाकी के साथ कैशलेस स्कीम का नाम दिया और आम आदमी को अपना धन बैंकों में रखने के लिए उत्साहित व बाध्य किया जाने लगा। अगर नोटबंदी के दौरान आने वाले नेताओं के बयानों पर गौर करें तो ऐसा लगता है कि मानो सरकार घोषणा वाले अंदाज में यह कह रही हो कि नब्बे-सौ दिन की परेशानी के बाद इस नोटबंदी के फायदे आम आदमी को दिखने लगेंगे और सरकार को बड़ी मात्रा में कालेधन के स्रोत पता चलेंगे लेकिन नोटबंदी का यह दौर गुजर जाने लगभग एक वर्ष बाद भी आम आदमी को सिवाय परेशानी के कुछ हासिल नहीं हुआ और अब बैंकों द्वारा अपने खातेदारों पर जोर-जबरिया वाले अंदाज में लगाए जा रहे तमाम तरह के शुल्क आर्थिक रूप से तंगी से गुजर रहे निम्न आय वर्ग व मध्यम वर्ग के लिए समस्याओं का नया अम्बार खड़ा कर रहे हैं। आर्थिक सर्वेक्षणों को लेकर सरकार द्वारा दिखाये व छिपाये जा रहे तमाम आंकड़ों पर एक सरसरी नजर डालने मात्र से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत की बैंकिंग व्यवस्था एक तंगहाली के दौर से गुजर रही है और इसके लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार वह तमाम औद्योगिक समूह व निजी क्षेत्र के कल कारखाने हैं जिन्होंने बैंकों से ली गयी भारी-भरकम धनराशि खुद को घाटे में दिखाकर हड़प ली है अथवा देने से इंकार कर दिया है। अब सरकार बैंकों को अपना अस्तित्व बचाने के लिए आम आदमी की जेब में डाका डालने का खुला हक देना चाहती है और इसके लिए सरकार की सहमति से बैंकों द्वारा अपने उपभोक्ता पर कई तरह के घोषित-अघोषित शुल्क लादे जा रहे हैं जिनकी जानकारी देना भी आम आदमी को जरूरी नहीं समझा गया है। हालात इस कदर बदतर हो चुके हैं कि जनधन योजना के तहत बैंकों में खुलवाये गए खातों और महिला स्वयं सहायता समूहों के बैंक खातों से भी न्यूनतम् बैलेंस से कम धन जमा होने अथवा अन्य कई तरह के शुल्कों के रूप में लगातार धनराशि काटी जा रही है और सरकार द्वारा राजकाज में पारदर्शिता लाने के नाम पर जनसामान्य को बैंक खातों के जरिये पहुंचायी जाने वाली अनुदान राशि बैंकों द्वारा निर्धारित किए गए शुल्कों में ही काट ली जा रही है। हालात इस कदर बदतर हो गए हैं कि जनधन योजना के नाम पर बामुश्किल बैंकों तक धकियाया गया आम आदमी अब बैंक की ओर रूख करने से डर रहा है और हर काम के बदले नकद पैसे की मांग बढ़ने के कारण बाजार में एक बार फिर आर्थिक तंगी के से हालात दिखने लगे हैं। यह माना कि डिजिटल इंडिया के स्वप्न को पूरा करने के लिए आम आदमी को तकनीकी से लैस किया जाना जरूरी है और इसमें बैंकों की भूमिका अहम् है लेकिन सवाल यह है कि आम आदमी पर जोर-जबरदस्ती लादी गयी इस व्यवस्था की खामियों का खामियाजा जन सामान्य द्वारा ही क्यों भुगता जाय। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि देश भर में लगाये गए तमाम एटीएम आम आदमी की जरूरतों को पूरा करने में असफल हैं और आंकड़े यह भी इशारा करते हैं कि आॅनलाइन बैंकिंग व इस तरह की अन्य व्यवस्थाएं लागू होने के साथ ही बैंक ग्राहकों के साथ ठगी व अन्य तरह के फ्राॅड रोकने में सरकार नाकाम रही है लेकिन सरकारी तंत्र व बैंकिंग व्यवस्था इन तमाम कमियों को दूर करने की जगह अपने ही ग्राहकों पर हमलावर है और उसके द्वारा बैंक में रखी गयी छोटी-छोटी राशियों को विभिन्न शुल्कों व सरचार्ज के नाम पर जनता से वसूली की परम्परा को बढ़ावा मिला है। हालांकि सरकार का मानना है कि आम आदमी को बैंक के जरिए लेन-देन करने की आदत डालकर वह व्यवस्था में पारदर्शिता ला सकती है और सरकार द्वारा विभिन्न मदों के जरिये जारी की जाने वाली अनुदान राशि को आसानी के साथ जरूरतमंद तक पहुंचाया जा सकता है लेकिन देखने में आ रहा है कि बैंक पिछले दरवाजे से इसी राशि पर डाका डालने वाले अंदाज में विभिन्न मदों में इसकी कटौती कर रहे हैं और आम आदमी बिना किसी जुर्म के खुद को ठगा महसूस कर रहा है। यह ठीक है कि सरकार व्यवस्था में एक बड़ा बदलाव लाने की कोशिश कर रही है और किसी भी व्यवस्था में बदलाव किए जाने की शुरूवाती कोशिशों में छोटी-मोटी खामियों का सामने आना लाजमी भी है लेकिन सवाल यह है कि सरकार द्वारा बिना किसी तैयारी के किए जा रहे इस प्रयोग का खामियाजा आम आदमी ही क्यों भुगते। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि भारत में अधिसंख्य जनसंख्या आज भी रोज कमाकर खाने पर विश्वास करती है और भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ समझी जाने वाले घरेलू या कामकाजी महिलाएं अपने रोजमर्रा के खर्च में छोटी-मोटी बचत कर अपने भविष्य को सुरक्षित रखने व आड़े वक्त के लिए कुछ नकद धनराशि बचाकर रखने के लिए प्रयासरत् रहती हैं लेकिन सरकार द्वारा एकाएक वाले अंदाज में की गयी नोटबंदी के माध्यम से इस छोटी बचत का एक बड़ा हिस्सा बैंक में पहुंच गया है जिस पर सरकारी हुक्मरानों की नजर है और इस धनराशि पर विभिन्न प्रकार के शुल्क लगाकर इसमें कटौतियों का दौर जारी है। लिहाजा आम आदमी का आक्रोश धीरे-धीरे कर बढ़ रहा है और वह बैंकों की ओर रूख करने से डरने लगा है। यह ठीक है कि सरकार ने आम आदमी को रोजगार मुहैय्या कराये जाने के उद्देश्य से कई योजनाओं के माध्यम से गारंटी मुक्त ऋण दिए जाने के प्रावधान भी किए हैं और डिजिटिलाइजेशन या फिर कैशलेस जैसी योजनाओं को लागू करने के पीछे सरकार की नीयत भी गलत नहीं है लेकिन अगर आंकड़ों की भाषा में गौर करें तो हम पाते हैं कि सरकार द्वारा लागू की गयी विभिन्न योजनाएं जनसामान्य के बीच नया रेाजगार प्रारंभ करने की उत्सुकता को बढ़ाने में पूरी तरह असफल रही है और एक सामान्य बेरोजगार अथवा जरूरतमंद को बैंक के माध्यम से किसी भी तरह का ऋण मिल पाना आसान नहीं हुआ है। हो सकता है कि अगले वित्तीय वर्ष में आंकड़ों में कुछ सुधार आए और सरकार नये रोजगार उपलब्ध कराने की दिशा में कुछ बेहतर कदम उठा सके लेकिन तब तक जन सामान्य के बीच बैंकों का ऐसा खौफ पैदा हो जाने की संभावना है कि आम आदमी बैंकों के आगे से गुजरने में भी डरने लगे और अगर देश का निम्न व मध्यम वर्ग अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए एक बार फिर नकद लेन-देन की ओर बढ़ा तो बाजार में एक अलग किस्म की आर्थिक तंगी के हालात पैदा होने की संभावना है जिसे संभाल पाना सरकारी तंत्र के लिए आसान नहीं होगा। इन हालातों में सरकार को चाहिए कि वह व्यवस्थाओं के दुरूस्त होने तक अपनी नीतियों व बैंकों द्वारा जबरन वसूली वाले अंदाज में लिए जा रहे तमाम तरह के शुल्कों पर पुनर्विचार करे और ग्राहकों से जरबिया काटा गया पैसा उनके खातों में वापस किए जाने के विकल्प पर विचार किया जाय लेकिन बड़े कर्जदारों द्वारा समय पर ऋण लौटाये न जाने से आर्थिक तंगी की ओर जा रहे बैंक अपनी कमजोर माली हालत का हवाला देकर इस तरह की तमाम व्यवस्थाओं को बंद किए जाने के पक्ष में नहीं है और यह सरकार के लिए दोहरे संकट की स्थिति है। लिहाजा हम यह कह सकते हैं कि सरकार द्वारा जल्दबाजी में लिया गया नोटबंदी का निर्णय और जोर-जबरदस्ती वाले अंदाज में बिना किसी प्राथमिक तैयारी के कैशलेस व्यवस्था को जल्द से जल्द लागू करने की जिद अब आम आदमी को भारी पड़ रही है जिसके परिणाम भविष्य में भुखमरी, आर्थिक तंगी व अराजकता के रूप में सामने आ सकते हैं लेकिन सरकार इन तमाम समस्याओं को अनदेखा करते हुए अपनी जिद पर अड़ी हुई है और निरीह जनता की आर्थिक परेशानी व मूल समस्याओं से उसका ध्यान भटकाने के प्रयास सतत् रूप से जारी हैं।

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