योग दिवस के आयोजनों के नाम पर सरकारी तंत्र में लगी अंधाधुंध खर्च करने की होड़।
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर देश-विदेश में आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों से यह तो तय हो गया गया कि पुरातन भारतीय संस्कृति एवं जीवन पद्धति को लेकर जन सामान्य के बीच जानकारी लगातार बढ़ रही है और भारत का ही नही बल्कि वैश्विक जन समुदाय का उच्च वर्ग अपने शारीरिक स्वास्थ्य के लिऐ योग की ओर आकृर्षित हो रहा है। यह ठीक है कि भारत में अनेक योगी पुरूष व महात्मा हुऐ है तथा आधुनिक भारत में भी अनेक योगियो, संत पुरूषों व योगाचार्याे ने अपने संसाधनों व वाणी के प्रभाव से कुलीन वर्ग को प्रभावित करते हुये देश-विदेश तक में शोहरत हासिल की है लेकिन जन सामान्य को योग से जोड़कर सम्पूर्ण भारत वर्ष में एक नई क्रान्ति लाने का श्रेय हम बाबा रामदेव को दे सकते है और यहाँ पर यह लिखने में कोई हर्ज नही है कि बाबा रामदेव ने जिस रणनैतिक अंदाज में योग की शिक्षा को आम आदमी से जोड़ा वह स्वंय में काबिलेतारीफ है। एक साधारण संत के रूप में कनखल, हरिद्वार से अपना जीवन शुरू करने वाले बाबा रामदेव कब और कैसे इतनी उँचाईयों तक पहुंच गये तथा देश ही नही विदेशों तक की जनता को योग के कुछ सामान्य आसनों व शारीरिक व्यायाम से जोड़ते हुऐ एकदम इतना लोकप्रिय बना देने का मंत्र उन्हें किसने दिया यह पता ही नही चला लेकिन इस सबके बावजूद इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि पुरातन योग गुरूओं व भारतीय आध्यत्मिक साहित्य में वर्णित जटिल व गूढ़ भंगिमाओं को वैदिक मंत्रों से निकालकर सामान्य व सरल भाषा में आम आदमी तक पहुंचाने के लिऐ बाबा रामदेव को हमेशा ही याद किया जायेगा। हांलाकि वर्तमान में यह अंदाजा लगाया जाना मुश्किल है कि योग के प्रचार से शुरू हुआ बाबा रामदेव का कांरवा आर्युर्वेदिक दवाओं के उत्पादन से ज्यादा फायदा कमा रहा है या फिर स्वदेशी उत्पाद के नाम पर दैनिक जीवन में उपयोग की तमाम वस्तुओं व सामग्रीयों का निर्माण उनके लिऐ ज्यादा फायदे का सौदा है लेकिन इस तथ्य से इनकार नही किया जा सकता कि योग को माध्यम बनाकर जितनी तरक्की बाबा रामदेव ने की, वह आश्चर्यजनक है और देश-दुनिया के कई संत व कथावाचक जाने अनजाने में रामदेव के उन तमाम तौर तरीकों का अनुसरण भी कर रहे है। खैर रामदेव से हटकर एक बार फिर अन्र्तराष्ट्रीय योग दिवस पर विचार करें तो हम पाते है कि योग की महत्ता एवं सार्वजनिक जीवन में इसके फायदे को देखते हुये भारतीय संत समाज के जिस हिस्से ने योग को अन्र्तराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाने व इस आयोजन के लिऐ वैश्विक स्तर पर एक दिन निर्धारित किये जाने को लेकर अथाह मेहनत की, वह तमाम पूज्यनीय व परम् श्रद्धेय व्यक्तित्व आज नेपृथ्य में है और पिछले तीन वर्षो में ‘21 जून का पूरी तरह सरकारीकरण हो गया है। सरकार योग दिवस के अवसर पर विज्ञापन व अन्य आयोजनों के जरियें न सिर्फ ठीक-ठाक पैसा खर्च कर रही है बल्कि भाजपा शासित राज्यों में इस आयोजन को भव्य तरीके से किये जाने के संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम से प्रत्यक्ष व परोक्ष आदेश जारी किये जा रहे है और ऐसा प्रतीत होता है कि भारत सरकार योग में महारत हासिल कर न सिर्फ देश की विश्वगुरू बनाना चाहती है बल्कि इस देश की जनता की समस्याओं व तमाम राष्ट्रीय-अन्र्तराष्ट्रीय मुद्दों का समाधान योग के माध्यम से ही निहित है। जनता के स्वास्थ्य को लेकर सरकार का चिन्तित होना एक अच्छी पहल मानी जा सकती है और इस तथ्य से भी इनकार नही किया जा सकता कि नियमित व्यायाम, संयमित खान-पान व दिनचर्या के चलते हम अपने परिवार पर पड़ने वाले चिकत्सकीय बोझ को काफी हद तक कम कर सकते है लेकिन क्या सरकार अथवा कोई साधु-संत-महात्मा-योग पुरूष या फिर बाबा रामदेव जैसा व्यवसायी इस बात की गारन्टी लेे सकता है कि सिर्फ योग, संयमित खानपान, व्यायाम और आर्युवेदिक दवाओं के बलबूते न सिर्फ देश और दुनिया के सभी मर्जो व मरीजों का इलाज किया जा सकता है? यदि इस प्रश्न का जवाब हाँ में है तो सरकार को चाहिऐं कि वह अन्य कई जरूरी खर्चाे में कटौती करके भारतीय ज्ञान और विज्ञान की इस परम्परा को आगे बढ़ाने के लिऐ पूरे जोर-शोर से प्रयास करें और इस तरह के आयोजनों को एक दिन तक सीमित रखने के स्थान पर पूरे वर्ष भर योग के प्रचार-प्रसार पर ध्यान दें। सवाल यह है कि क्या सरकार अपनी नीतियों व रीतियों के तहत यह मानती है कि योग सब समस्याओं को एकमात्र निदान है? यदि इस प्रश्न का जवाब हाँ में है तो सत्तापक्ष ने इस तरह के आयोजनों के साथ ही साथ जनमानस को लेकर एक व्यापक जानकारी जनता की अदालत में रखनी चाहिऐं और अगर सरकार योग को देश-दुनिया से जुड़ी सभी समस्याओं का निदान न मानकर इसे स्वस्थ जीवन जीने का एक तरीका या फिर भारतीय वैदिक परम्पराओं के अनुपालन का एक हिस्सा मानती है तो सरकारी तंत्र ने इस तरह के आयोजनों में घालमेल करने की जगह योग के प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी संत समाज व योगाचार्यो पर छोड़ देनी चाहिऐ। अगर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व, संघ के नीति निर्धारकों या फिर सत्ता के शीर्ष पर काबिज नरेन्द्र मोदी को लगता है कि हमारा संत समाज व सदियों से इन जिम्मेदारियों को निभा रहे योगाचार्य व अन्य सामाजिक चिन्तक अकेले इस योग दिवस के आयोजन व ऐसी ही अन्य जिम्मेदारियों का नही उठा पायेंगे तो इन तमाम लोगों ने अपने कार्यकर्ताओं, प्रशंसकों व अनुगामियों को निर्देशित करना चाहिऐं कि वह समाज के बीच जाये और संत समाज के सहयोेग से इस प्रकार के आयोजनों को भव्य रूप प्रदान करें लेकिन अन्र्तराष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर भाजपा शासित विभिन्न प्रदेशों व केन्द्र की सरकार द्वारा आयोजित कार्यक्रमों को देखकर ऐसा अनुभव हो रहा है कि मानो सरकारी तंत्र यह समझ बैठा है कि योग की भारतीय ब्राडिंग देश व दुनिया की हर समस्या का निदान है और यह हालात ठीक कुछ वैसे ही है जैसा कि ‘रोम जल रहा था और नीरो वंशी बजा रहा था‘ किस्से मे कहे गये है। वर्तमान में सारा देश किसानों की आत्महत्या व आन्दोलन से परेशान है तथा जीएसटी के प्रेत से डरे व्यवसायी व उद्योगपति विधिवत् रूप से अपने यहाँ अवकाश घोषित कर रहे है। ठीक इसी प्रकार बैंको द्वारा लागू नये नियम कानूनों के क्रम में आम आदमी यह नही समझ पा रहा है कि वह अपनी कमाई को कैसे खर्च करें और देश का एक बड़ा हिस्सा शराब विरोधी आन्दोलनों, स्थानीय मुद्दों व समस्याओं की निजात के लिऐ शुरू हुऐ छोटे राज्य बनाने के आन्दोलनों या फिर आंतक, अलगाववाद व माओवादी आन्दोलनों से जूझ रहा है। इस हालत में कोई प्रधानमंत्री जैसे दायित्वों वाला व्यक्ति कैसे और क्यों भव्य पण्डालों में योग के नाम पर अरबों की सरकारी लूट का मार्ग प्रशस्त कर सकता है ? इस प्रश्न का जवाब सिर्फ और सिर्फ भक्त मण्डली द्वारा ही दिया जा सकता है।