आंदोलन की तैयारियों के बावजूद | Jokhim Samachar Network

Friday, April 19, 2024

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आंदोलन की तैयारियों के बावजूद

व्यापक जनहित की मांगों को लेकर एक बार फिर जनान्दोलन का मन बना रहे अन्ना नहीं चाहते कि आन्दोलन के माध्यम से आगे आये नया नेतृत्व
जन लोकपाल के मुद्दे पर व्यापक जनान्दोलन को जन्म देने वाले अन्ना हजारे एक बार फिर सरकार के खिलाफ आन्दोलन के मूड में हैं और अपने मूल विषय को जनता के बीच ले जाने से पहले उन्होंने बयान दिया है कि वह अपने आगामी आन्दोलन के जरिये किसी को केजरीवाल बनने का मौका नहीं देंगे। एक लंबे आंदोलन में अपने सहयोगी रहे केजरीवाल से अन्ना की व्यक्तिगत अथवा सार्वजनिक तौर पर क्या नाराजी है और वह किस आधार पर यह कह रहे हैं कि जनान्दोलनों के जरिये जननेता के आगे आने की सतत् प्रक्रिया पर लगाम लगाने में वह इस बार सफल होंगे, यह तो अन्ना हजारे ही ज्यादा बेहतर समझ सकते हैं लेकिन जनमानस की नब्ज पहचानने का दावा करने वाले बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग को इस बार अन्ना के किसी भी आन्दोलन की सफलता पर संदेह है क्योंकि बिना किसी राजनैतिक सोच अथवा जुड़ाव के शुरू होने वाले आंदोलनों के मुद्दे से भटकने या टूट जाने का खतरा होता है और अगर अन्ना के पिछले आन्दोलन पर भी गौर किया जाय तो इसकी एकमात्र उपलब्धि यही लगती है कि इसकी कोख से अरविन्द केजरीवाल जैसा नेता निकला था जिसे दिल्ली की स्थानीय जनता ने न सिर्फ पसंद किया बल्कि दो बार उसके नेतृत्व को स्वीकारते हुए यह संदेश देने की कोशिश की कि देश की जनता आंदोलन के माध्यम से अन्ना हजारे द्वारा उठाए गए मुद्दों से सहमत है। अब अगर अन्ना हजारे द्वारा की गयी पहल पर गौर करें तो हम पाते हैं कि एक बार फिर कठिन लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ने की चुनौती स्वीकार करने के मूड में दिख रहे अन्ना हजारे की लंबी चुप्पी के बाद भरी गयी इस हुंकार को भी संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है क्योंकि पिछली बार अन्ना के इस आंदोलन में संघ की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता और अन्ना भी अपने वक्तव्य में केजरीवाल की ही खिलाफत करते दिखते हैं जबकि इसी आंदोलन की पृष्ठभूमि से निकलकर बाजरिया भाजपा, राज्यपाल के पद तक पहुंची किरन बेदी को लेकर उनकी जुबान खामोश है, तो क्या यह मान लिया जाए कि केन्द्र की सत्ता पर काबिज मोदी व अमित शाह के रणनीतिकारों ने एक बार फिर अन्ना को आगे कर आगामी लोकसभा चुनावों की पटकथा लिखनी शुरू कर दी है और इस बार अन्ना के आंदोलन में जुटने वाली भीड़ को राष्ट्रभक्ति की ऐसी घुट्टी पिलाई जाने वाली है कि वहां मोदी के अलावा किसी दूसरे नेता के लिए गुंजाईश ही न बचे। हो सकता है कि केन्द्र सरकार लोकपाल जैसा कुछ सदन के माध्यम से जनता के बीच लाने के लिए माहौल बनाना चाहती हो या फिर यह भी हो सकता है कि अपने पिछले आन्दोलन से केन्द्र सरकार को हिला देने वाले अन्ना एक बार फिर जनता के बीच जाने की जरूरत महसूस कर रहे हों लेकिन दोनों ही स्थितियों में जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए एक टीम अन्ना की जरूरत तो होगी ही और अपने आंदोलन की सफलता या असफलता के बाद इसका श्रेय लेने के लिए अन्ना हजारे को कुछ चेहरे भी चाहिए होंगे। लिहाजा यह कहना मुश्किल है कि आंदोलन की सफलता के बाद इससे नेता निकलना रोका जा सके और अगर ऐसा होता है तो उसके लिए आंदोलन की सफलता का पूरा श्रेय सरकार को ही देना होगा। इसलिए एक बड़े उद्देश्य के साथ शुरू होने वाली अन्ना हजारे की इस मुहिम का दूसरा चरण अपनी शुरूआत से पूर्व ही संदेह के घेरे में है और अगर जनान्दोलनों में जुटने वाली भीड़ की दृष्टि से बात करें तो हम पाते हैं कि पूर्व में जब अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़ते हुए आन्दोलन के मैदान में उतरे थे तो उस वक्त देश की जनता त्रस्त नजर आ रही थी तथा मौजूदा विपक्ष के रूप में भाजपा महंगाई, स्वदेशी व अन्य ऐसे ही तमाम मुद्दों पर जनता को लामबंद करने की दिशा में प्रयासरत् थी लेकिन इधर जनसामान्य का एक बड़ा हिस्सा रोजमर्रा के जीवन में सामने आ रही तमाम परेशानियों व समस्याओं के बावजूद चुप होकर सरकार की कार्यशैली को निहार रहा है जबकि विपक्ष तमाम बड़े मुद्दों के बावजूद जनता अथवा अपने कार्यकर्ताओं को सड़क मंे उतारने में असफल है। यह माना कि आज भी महंगाई पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है और नोटबंदी के तत्काल बाद से ही मंद बाजार से जीएसटी के नाम पर वसूले जा रहे भारी भरकम करों के चलते जनसामान्य का एक बड़ा हिस्सा त्रस्त है लेकिन सरकार ने पूरी चालाकी के साथ जनता को अपने ही सवालों में उलझा रखा है और भ्रष्टाचार या बेईमानी के स्थान पर हिन्दुत्व व इससे जुड़े अन्य तमाम विषय बड़े मुद्दे में तब्दील हो गए हैं। हमने देखा कि गुजरात समेत तमाम भाजपा शासित राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के साथ ही साथ अन्य हर छोटे-बड़े चुनाव में विकास राजनैतिक चर्चाओं का विषय नहीं रहा है और न ही सत्ता पक्ष विभिन्न राज्यों अथवा केन्द्र सरकार द्वारा इन विगत् चार वर्षों में अपने द्वारा कराए गए कार्यों के आधार पर जनता से वोट मांग रहा है। इन हालातों में अन्ना हजारे के लिए यह वाकई मुश्किल होगा कि वह अपने आन्दोलनात्मक राष्ट्रवाद व भाजपा के छदम् राष्ट्रवाद के अंतर को जनता जनार्दन के सामने रखते हुए उसे यह समझा पाएं कि उनके उद्देश्यों व सरकार के उद्देश्यों में कोई फर्क है और अगर इस तरह का कोई फर्क नहीं है या फिर अन्ना हजारे एक बार फिर संघ के नेतृत्व को भरोसे में लेकर आंदोलन के मैदान में उतरना चाहते हैं तो फिर इस चर्चा का कोई फायदा ही नहीं है क्योंकि उन स्थितियों अन्ना के मंच को भी नरेन्द्र मोदी के रूप में एक रेडीमेड नेता मिलने ही वाला है और वहां कोई दूसरा केजरीवाल पैदा होने की संभावना भी स्वतः ही समाप्त हो जाती है। लिहाजा हम यह भी मान सकते हैं कि अन्ना हजारे एक बार फिर एक बड़ा प्रायोजित खेल खेलने जा रहे हैं और अगर ऐसा है तो इससे दिल्ली या देश के बाशिन्दों को कोई फायदा नहीं होने वाला। हां इतना जरूर है कि आंदोलन के नाम पर जुड़ी टीम अन्ना अपने इस प्रायोजित कार्यक्रम के माध्यम से आगामी चुनावों के लिए कुछ ज्वलंत मुद्दों को सामने लाने का काम करते हुए मोदी के दूसरे कार्यकाल की पटकथा लिखने में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने में सफल हो जाएं लेकिन अगर वाकई ऐसा है तो यह भी निश्चित जानिये कि वर्तमान में समाज को बेचैन कर रहे तमाम राजनैतिक मुद्दे व व्यापार या अन्य क्षेत्रों स्पष्ट रूप से आती दिख रही लगभग सभी समस्याएं चुनावी चर्चाओं का विषय नहीं रहेंगी। अर्थात् देश की जनता और मौजूदा विपक्ष को आगामी लोकसभा चुनावों के दौरान सरकार अथवा भाजपा के नीति-निर्धारकों से यह पूछने का हक भी नहीं रहेगा कि उन्होंने पिछले पांच सालों में क्या किया अथवा चुनावों के दौरान व्यापक जनसमर्थन की उम्मीद कर रहे सत्तापक्ष की वास्तविक उपलब्धियां क्या हैं। खैर वजह चाहे जो भी हो लेकिन कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि देश की जनता के बीच एक बुजुर्ग व गांधीवादी नेता के रूप में स्थापित अन्ना हजारे एक बार फिर दिल्ली में हुंकार लगाने के लिए मचल रहे हैं और अपने इन अरमानों को अमलीजामा पहनाने के लिए उन्होंने न सिर्फ तैयारियां शुरू कर दी हैं बल्कि इन तैयारियों के प्रारंभिक दौर में वह यह भी तय कर चुके हैं कि उनका आंदोलन नेता बनाने की फैक्ट्री में तब्दील नहीं होगा अर्थात् सरकार व सत्तापक्ष या विपक्ष से जुड़े तमाम राजनैतिक दलों अथवा विचारधाराओं की खिलाफत करने के बावजूद अन्ना हजारे भी यही चाहते हैं कि देश व राजनीति मौजूदा ढर्रे पर ही चलती रहे।

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