मतदान को तैयार मतदाता क्या फैसला देगा और मत प्रतिशत बढ़ने की दशा में किन उम्मीदवारों को फायदा या नुकसान होगा, इसपर कयासों का सिलसिला तेज हो चुका है लेकिन उत्तराखण्ड में चुनाव प्रचार थमने के बाद यह स्पष्ट दिख रहा है कि मतदाता लगभग खामोश है जबकि पूर्ण रूप से भुगतान आधारित व्यवस्थाओं के तहत काम करने वाला चुनावी कार्यकर्ता खुद को मिले भुगतान के आधार पर ही प्रत्याशी की हार या जीत तय कर रहा है। यह माना जा रहा था कि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चुनावी दौरो के बाद राज्य का चुनावी माहौल कुछ बदलेगा तथा मतदाता भाजपा के पक्ष में खुलकर सामने आयेगा लेकिन अभी तक ऐसे कोई आसार नही दिख रहे है जिनके आधार पर यह कहा जा सके कि भाजपा के पक्ष में कोई लहर या हवा चल रही है और इस लहर में मोदी अथवा अन्य केन्द्रीय मन्त्रियों के दौरो के बाद भाजपा के तमाम प्रत्याशी बहुमत से सरकार बनाने की ओर आगे बढ़ रहे। इसलिऐं यह मानकर चलना होगा कि इस बार प्रत्याशी के गुण-दोष का आॅकलन करते हुऐ उसके द्वारा पूर्व में किये गये कामों के आधार पर ही अपना मतदान करेगा और अगर ऐसा होता है तो स्थानीय स्तर पर प्रदेश के मुख्यमंत्री हरीश रावत द्वारा पिछले तीन वर्षो में की जा रही दौड़भाग व लगभग हर विधानसभा स्तर पर जाकर की गयी उनकी घोषणाऐं रंग दिखा सकती है लेकिन निर्दलीय प्रत्याशियों के जोश व चुनाव को लेकर उनके जुनून को देखते हुऐ यह कहना भी मुश्किल लगता है। तो क्या यह माना जाय कि राज्य की चैथी विधानसभा के चुनावों के वक्त प्रदेश एक बार फिर अस्थिर व गठबन्धन सरकार की ओर बढ़ रहा है। गठबन्धन सरकार व कमजोर मुख्यमंत्री होने के प्रदेश को कितने नुकसान होते है, इसका अन्दाजा हम पिछले दस वर्षो में लगा चुके है और हाईकमान की पसन्द व असन्तोष कम करने के नाम पर रोज-रोज बदले जाने वाले मुख्यमंत्री किस हद तक बेगैरत होते है, यह भी हमने पिछले कुछ वर्षो में देखा है लेकिन राज्य की राजनीति में स्पष्ट दिखने वाले तीसरे किसी क्षेत्रीय दल या मजबूत दृष्टिकोण का आभाव वर्तमान में भी साफ झलकता है और राष्ट्रीय नेताओ के अलावा तमाम केन्द्रीय मन्त्रियों व फिल्म स्टारो को लेकर भी जनता द्वारा दिखलायी जाने वाली बेरूखी से यह स्पष्ट अन्दाजा आता है कि राजनीति के मैदान में राष्ट्रीय राजनीतिक दलो द्वारा प्रस्तुत किये गये विकल्पो से जनता पूरी तरह संतुष्ट नही है। यह अलग बात है कि किसी भी ‘एक को चुनने की बाध्यता’ के अलावा मतदान के दौरान दिये गये ‘इसमें से कोई नही’ (नोटा) के विकल्प को चुनकर कुछ जागरूक लोग अपना आक्रोश व्यक्त करेंगे लेकिन मतदान के उपरान्त जीत के लिऐ न्यूनतम् मतप्रतिशत् निर्धारित होने का कोई आकड़ा तय न होने के कारण जीतकर आने वाला जनप्रति निधि वाकई में जनता के एक बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व करेगा, यह तय नही है। खैर इन तमाम गम्भीर विषयो पर चर्चा के लिऐ फिर कभी हाजिर होने के वादे के साथ हम अभी तो सिर्फ इतना ही कह सकते है कि प्रशासन व चुनाव आयोग एक बार फिर पूरी निष्पक्षता से चुनाव कराने के लिऐ अपनी कमर कस चुका है तथा पोंलिग पार्टिया अपने-अपने गतंव्यो की ओर रवाना होकर विधिवत् रूप से इस महासंग्राम केा अन्तिम रूप देने के लिऐ मोर्चा सम्भाल चुकी है। हाॅलाकि प्रदेश में बहुत ज्यादा अशांन्ति व अराजकता की स्थिति कहीं नही दिखती और न ही ईवीएम के इस्तेमाल के बाद बड़ी मात्रा में बूथ कैप्चरिंग व फर्जी मतदान की सम्भावना ही शेष बची है लेकिन फिर भी कुछ अराजक तत्व जानबूझकर माहौल खराब करने या फिर कुछ मतदान केन्द्रो पर मतदान रूकवाने की कोशिशों को अंजाम दे सकते है। इसलिऐं सावधानी व चैकस सुरक्षा व्यवस्था बनाये रखना जरूरी है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि एक लम्बे इन्तजार के बाद अब फैसले की घड़ी आ ही पहुॅची है और हम सभी का कत्र्तव्य है कि लोकतन्त्र के इस महायज्ञ में सामूहिक भागीदारी देकर अपना मतदान करे व एक स्थिर और जनहितकारी सरकार बनाने का प्रयास करे।